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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६ १२. सुगममेदं पयदप्पाबहुअपरूवणाविसयं पइण्णासुतं । * तं जहा। ६ १३. सुगममेदं पि पुच्छावक्कं । एत्य ताव कोहादिसंजलणकिट्टीओ पादेक्कं तोहिं पविभागेहिं रचेदव्वाओ। एवं रचणाए कदाए एक्केक्कस्स कसायस्स तिण्णि तिणि संगहकिट्टीओ होदूण सव्वसमासेण बारह संगहकिट्टीओ। तत्थ सव्वहेट्ठिमा लोभस्स पढमसंगहकिट्टी णाम । तिस्से अवांतरकिट्टीओ अणंताओ जादाओ । तत्तो उवरिमा लोभस्स चेव विवियसंगहाकट्टी णाम । तिस्से वि पमाणं पुव्वं व वत्तव्वं । एवं सेस-संगहकिट्टीणं पि समयाविरोहेण विण्णासो कायय्वो जाव कोहस्स चरिमसंगहकिट्टि ति । एवमेदासि किट्टीणं रचणं काढूण संपहि तिव्वमंदवाए अप्पाबहुअं सुताणुसारेण वत्तइस्सामो।। * लोहस्स जहणिया किट्टी थोवा । $१४. कुदो सव्वमंदाणुभागेण परिणदत्तादो। * विदिया किट्टी अणंतगुणा | ६ १५. कोगुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो। एवमुवरि वि सव्वत्य गुणगारपरूवणा कायव्या। * एवमणंतगुणाए सेढीए जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । 5 १६. एवमेदेण विहाणेण लोभस्स पढमसंगहकिट्टीए अवयवकिट्टीसु चरिमकिट्टीपज्जंतासु अणंतगुणाए सेढीए अप्पाबहुअभेदं णेवव्वमिदि वुत्तं होइ। णवरि सव्वत्थ हेट्ठिमहेट्ठिमगुणगारादो ६ १२. प्रकृत अल्पबहुत्वका प्ररूपणाविषयक यह अल्पबहुत्व सम्बन्धी प्रतिज्ञावचन सुगम है। * वह जैसे। १३. यह पृच्छासूत्र भी सुगम है। यहां सर्वप्रथम क्रोषादि संज्वलनों सम्बन्धी कृष्टियों में से प्रत्येककी तीन भागोंमें रचना करनी चाहिए । इस प्रकार रचना करनेपर एक-एक कषायकी तीनतीन संग्रह कृष्टियां होकर सबका योग बारह संग्रह कृष्टियां हो जाता है। उनमें से सबसे नीचे लोम संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टि है। उसकी अवान्तर कृष्टियां अनन्त हैं। उससे ऊपर लोभकी ही दूसरी संग्रह कृष्टि है। उसका भो प्रमाण पहलेके समान कहना चाहिए। इसी प्रकार शेष संग्रह कृष्टियोंकी भी क्रोषसंज्वलनको अन्तिम संग्रह कृष्टिके प्राप्त होने तक यथागम रचना करनी चाहिए। अब सूत्रके अनुसार तीव्रता-मन्दतासम्बन्धी अल्पबहुत्वको बतलायेंगे के लोभको जघन्य कृष्टि सबसे स्तोक है। १४. क्योंकि वह सबसे मन्द अनुभागसे परिणत होती है। * उससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी है। ६१५. गुणकार कितना है ? अभव्योंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र गुणकारकी प्ररूपणा करनी चाहिए। * इस प्रकार अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे प्रथम संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टि तक जानना चाहिए। $१६. इस प्रकार इस विधिसे लोभको प्रथम संग्रह कृष्टि सम्बन्धी अन्तिम कृष्टि पर्यन्त अवयवकृष्टियोंमें अनन्त गुणित श्रेणिरूपसे यह अल्पबहुत्व होता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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