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________________ खवगसेढीए किट्टोणं तिव्वमंददापरूवणा ६९. एदाओ अणंतरणिहिट्ठाओ सव्वाओ वि किट्टिओ होदि कसायसंबंधेण चउम्विहत्तमुवगयाओ संगहकिट्टीभेवेण बारसधा पविभत्ताओ तदवयवकिट्टीगणणाए केत्तियाओ होति त्ति भणिदे एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो त्ति तासि पमाणणिद्देसो कवो। १०. तत्य एयफद्दयवग्गणाओ ति वुत्ते एगाणुभागफद्दयस्स अविभागपलिच्छेयुत्तरकमेण णिरंतरमवलम्भमाणाओ पादेक्कमभवसिद्धिएहितो अणंतगृणमेत्तसरिसधणियपरमाणसमहारद्धाओ घेत्तवाओ। एवाओ पुण एयपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयसलागाहितो अणंतगुणाओ। कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? अणंतरमेव परूविक्तप्पडिबद्धप्पाबहुआवो। एवं च परिच्छिण्णपमाणाणमेयफद्दयवग्गणाणमणंतभागमेत्ताओ एवाओ सव्वाओ किट्टीओ होति त्ति णिच्छयो कायम्वो, तप्पाओग्गाणंतरूहि एयफद्दयवग्गणासु ओवट्टिवासु तप्पमाणागमणवंसणावो। ११. एवमेदेण सुत्तेण किट्ठीणं पमाणावहारणं कादूण संपहि तासि चेव सरूवविसेसावहारणटुं तिव्व-मंददाविसयमप्पाबहुअं परूवेमागो सुतपबंधमुत्तरं भणइ * पढमसमए णिवत्तिदाणं किट्टीणं तिब्ब-मंददाए अप्पाबहुअं बत्तइस्सामो। ६९. अनन्तर निर्दिष्ट ये सब कृष्टियां कषायके सम्बन्धसे चार प्रकारकी होकर तथा संग्रह कृष्टियोंके भेदसे बारह भागोंमें विभक्त होकर उनसम्बन्धी अवयवकृष्टियां गणनाकी अपेक्षा कितनी होतो हैं ऐसा कहनेपर प्रकृष्ट गणनाकी अपेक्षा एक स्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं इस प्रकार इस सूत्र द्वारा उनके प्रमाणका निर्देश किया गया है। ६१०. वहां सत्रमे 'एगफयवग्गणाओ' ऐसा कहनेपर अनभागसम्बन्धी एक स्पर्धकके एक-एक अविभागप्रतिच्छेदके वृद्धिक्रमसे निरन्तर प्राप्त होनेवाली तथा प्रत्येक अभव्योंसे अनन्तगुणे सदृश धनवाल परमाणु समूहसे आरम्भ को गयो वर्गणाएं ग्रहण करनी चाहिए। पुनः ये एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरप्रमाण स्पर्धकशलाकाओंसे अनन्तगुणो होती हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है? समाधान-अनन्तर हो कहे गये उससे सम्बन्ध रखनेवाले अल्पबहुत्वसे जाना जाता है। और इस प्रकार प्रत्येक वर्गणाके प्रमाणको जानकर एक स्पर्धकसम्बन्धी एनके अनन्तवें भागप्रमाण ये सब कृष्टियां होती हैं ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि तत्प्रायोग्य अनन्त संख्यासे एक स्पर्धकसम्बन्धो वर्गणाओंके भाजित करनेपर उन कृष्टियोंके प्रमाणका आगमन देखा जाता है । विशेषार्थ-जैसा कि टोकामें स्पष्ट किया गया है यह कृष्टिकरणको प्रक्रिया मात्र चार संज्वलनोंको ही होती है, सत्तामें स्थित शेष कोको नहीं। चार संज्वलनोंकी होती हई भी अपर्व स्पर्धकोंमें जो सबसे जघन्य स्पर्धक है और उसको जितनी वर्गणाएँ हैं उनके मात्र अनन्त भागप्रमाण होकर भी ये सब कृष्टियाँ सबसे जघन्य वर्गणाके नीचे रची जाती हैं। इस प्रकार रची गयीं ये सब कृष्टियां संग्रह कृष्टि और अन्तर कृष्टिके भेदसे दो भागोंमें विभक होकर नामानुरूप ही इनके लक्षण है। क्रोधादि प्रत्येक संज्वलन कषायको ३-३ संग्रह कृष्टियां होती हैं और एक-एक संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियां अनन्त होता हैं। यहाँ एक कृष्टिसे दूसरो कृष्टिका जो गुणकार है, उसकी कृष्टि अन्तर संज्ञा है और एक संग्रह कृष्टि से दूसरा संग्रहकृष्टिक मध्य जो गुणकार है उसको संग्रहकृष्टि अन्तर संज्ञा है इतना विशेष जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है। ६११. इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा कृष्टियोंके प्रमाणका निश्चय करके अब उनके ही स्वरूप विशेषका अवधारण करने के लिए तीव्रता और मन्दता विषयक अल्पबहुत्वका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब प्रथम समयमें निष्पन्न हुई कृष्टियोंके तोवता-मन्दता विषयक अल्पबहुत्वको कहेंगे।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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