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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६७. तिण्हमेदेसिमघाविकम्माणं ठिदिखंडयघादो तक्कालभाविओ पुवघादिदावसेसटिदि. संतकम्मस्तासंखेज्जभागा त्ति घेतव्वो तेसिमसंखेज्जवस्सियटिदिसंतविलये पयट्टमाणस्स तस्स तहाभावाविरोहादो। संपहि तत्थेव कोहाविसंजलणाणं किट्टीकरणमाढवेमाणो एदेण विहाणेणाढवेदि ति जाणावण द्वगुत्तरो सुत्तपबंधो____ * पढमसमयकिड्डीकारगो कोधादो पुव्वफदएहितो च अपुव्वफदए हितो च पदेसग्गमोकड्डियूण कोहकिट्टीओ करेदि । माणादो ओकड्डियूण माणकिट्टीओ करेदि । मायादो ओकड्डियूण मायकिट्टीओ करेदि । लोभादो ओकड्डियूण लोभकिट्टीओ करेदि । 5 ८. अपुव्वफद्दयकरणविसयवावारविसेसं सव्वमुवसंहरिय किट्टीकरणाहिमुहो होदूण तप्पारंभपढमसमये वट्टमाणो पढमसमयकिट्टी कारगो गाम । सो कोहादो पुव्वफद्दएहितो अपुवफद्दएहितो च पदेसगस्सा संखेज्जविभागमोकड्डियूण अपुवफद्दयादिवग्गणादो हेट्ठा अणंतिमभागे कोहकिट्टीओ करेदि। एवं माण-माया-लोहावीणं पि अप्पप्पणो पदेसग्गमोकइडियण सगसगाधफयादिवरगणाहितो हेदा बादरकिट्रीओ करेदि ति एसो एत्थ सत्तत्थसमुच्चओ। संपहि एवं कोरमाणाओ ताओ कोहादिसंजलणेसु पडिबद्धाओ किट्टीओ किपमाणाओ त्ति आसंकाए तादयत्तावहारणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं * एदाओ सव्वाओ वि चउबिहाओ किट्टीओ एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो। ६७. इन तीन अघातिकर्मोंका तत्काल होनेवाला स्थितिकाण्डकघात पूर्व में घात होनेसे शेष बचे स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है क्योंकि उनका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है, इसलिए उसके उस रूपसे प्रवृत्त होने में विरोधका अभाव है। अब वहीं क्रोधादि संज्वलनोके कृष्टिकरणको आरम्भ करता हुआ इस विधिसे आरम्भ करता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * प्रथम समयमें कृष्टिकारक जीव क्रोधसम्बन्धी पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेश. जका अपकर्षण करके क्रोचकृष्टियोंको करता है। मानसंज्वलनसे अपकर्षण करके मानकृष्टियोंको करता है । मायासंज्वलनसे अपकर्षग करके मायाकृष्टियोंको करता है और लोभ संज्वलनसे अपकर्षित करके लोभकृष्टियोंको करता है ६८. अपूर्वस्पर्धकके करने सम्बन्धी व्यापार विशेषका उपसंहार करके कृष्टिकरणके सम्मुख होकर उनके प्रारम्भ करनेके प्रथम समयमें विद्यमान यह जीव प्रथम समयवर्ती कृष्टिकारक संज्ञावाला होता है। वह क्रोधसम्बन्धा पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके अपूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणासे नीचे अनन्तवें भागमें क्रोधकृष्टियोंको करता है । इसी प्रकार मान, माया और लोभसम्बन्धी भी अपने-अपने प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके अपने-अपने अपूर्वस्पर्धक सम्बन्धो वर्गणाओंसे नीचे बादर कृष्टियोंको करता है यह यहाँ इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। अब उन्हें इस प्रकार करता हुआ क्रोध आदि संज्वलनसे सम्बन्ध रखनेवाली वे कृष्टियां कितनी हैं ऐसी आशंका होनेपर उनके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेका सूत्र आया है ये सभी चारों प्रकारको कृष्टियां प्रकृष्ट गणनाकी अपेक्षा एक स्पर्धक सम्बन्धी वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण होतो हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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