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________________ १९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे भण्णदे। तदो एदम्मि अभवसिद्धियपाओग्ग विसयेभवसमयपबद्धसेसयाणं परवणमिमाओ अणंतरणिहिट्ठाओ चत्तारि भासगाहामओ पुणो वि विहासियव्वाओ त्ति एसो एस्थ सुत्तत्थसंगहो। * तत्थ पुव्वं गमणिज्जा णिन्लेवणट्ठाणाणमुवदेसपरूवणा । ६४९८. तत्थ अभवसिद्धियपाओग्गविसये चढण्हं भासगाहाणमत्थविहासणावसरे पुव्वं पढममेव ताव गणिज्जा अणुगंतव्वा णिल्लेवणढाणाणमुवदेसपरूवणा; तेसु अविण्णादेसु तण्णिबंधणभवसमयपबद्धसेसयाणं चहि भासगाहाहि विहासणोवायाभावादो त्ति वृत्तं होइ। तत्थ कि पिल्लेवणढाणं णाम ? एगसमये बद्धकम्मपरमाणवो बंधावलियमेत्तकाले बोलिदे पच्छ। उदयं पविसभाणा केत्तियं पि कालं सांतर-णिरंतरसरूवेणुवयमागंतूण जम्हि समयम्हि सव्वे चेव णिस्सेस. मुवयं कादूण गच्छंति तेसि णिरुद्धभवसमयपबद्धपदेसाणं तमिल्लेवणट्ठाणमिदि भण्णदे; तत्थ तेसि जिरवसेसभावेण णिल्लेवणसणावो। एवंविहणिल्लेवणट्ठाणमेक्कस्स समयपबद्धस्स भव. बद्धस्स वा किमेवियप्पं चेव होइ, आहो अणेयवियप्पमिदि णिण्णयकरणटुमेसा उवएसपरूवणा एत्थाढविज्जदे। सा वुण पिल्लेवणट्ठाणाणमुवदेसपरूवणा एस्थ दुविहा होदि ति जागावण?मिदमाह * एत्थ दुविहो उवएसो। ___ इसलिए अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य इस विषयमें भवबद्धशेष और समयप्रवद्धशेषकी प्ररूपणा करने के लिए इन अनन्तर पूर्व कहो गयी चार भाष्यगाथाओंकी यहां फिर भी विभाषा करनी चाहिए यह यहाँपर इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । * इस विषयमें सर्वप्रथम निर्लेपनस्थानोंके उपदेशको प्ररूपणा जानने योग्य है। ४९८. 'तत्थ' अर्थात् अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें चार भाष्यगाथाओंके अर्थकी विभाषा करते समय 'पुर्व' अर्थात् सर्वप्रथम निर्लेपनस्थानोंके उपदेशको प्ररूपणा 'गमणिज्जा' अर्थात् जानने योग्य है, क्योंकि उनके अविज्ञात रहनेपर तन्निमित्तक भवबद्धशेष और समयप्रवद्धशेषोंकी विभाषा करनेका अन्य कोई उपाय नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यहां निलेपनस्थान किसे कहते हैं ? समाधान-एक समय द्वारा बन्धको प्राप्त हुए कर्मपरमाणु बन्धावलिकालके बीत जानेपर पश्चात् उदयमें प्रवेश करते हुए कितने ही काल तक सान्तर और निरन्तररूपसे उदयमें आकर जिस समय सभी उदयमें आकर निकल जाते हैं उन विवक्षित भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंका वह निर्लेपनस्थान कहलाता है, क्योंकि वहाँपर उन कर्मपरमाणुओंका पूरी तरहसे निर्लेपन देखा जाता है। इस प्रकारका निर्लेपनस्थान एक समयप्रबद्धका या भवबद्धका क्या एक भेदरूप होता है या अनेक भेदरूप होता है इस बातका निर्णय करनेके लिए यह उपदेशकी प्ररूपणा यहाँपर आरम्भ की जाती है। परन्तु वह निर्लेपनस्थानके उपदेशकी प्ररूपणा यहां दो प्रकार की है इस बातका ज्ञान कराने के लिए इस सूत्रको कहते हैं * प्रकृतमें दो प्रकारका उपदेश पाया जाता है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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