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________________ खवगसेढीए अट्ठममूलगाहाए चउत्थभासगाहा १८९ विहासिदो।पुणो 'कवि वा एगसमएणेत्ति' एक्स्स पच्छिमपदस्स अत्यो तदिय चउत्थभासगाहाहि विहासिदो ति वक्खाणेयव्वं । कवि वा सामण्णासामण्णाद्विदीओ एगसमयेण एगसंबंधेण णिरंतरभावमुवगयाओ समुवलब्भंति ति पुच्छाहिसंबंध कादूण वक्खाणे कीरमाणे तदिय-चउत्यभासगाहाणमत्थस्स परिप्फुडमेव तत्थ पडिबद्धत्तदंसणादो। एवमेत्तिएण पबंधेण खवगसंबंधेण चउण्हं भासगाहाणमत्थविहासणं कादूण संपहि पयवमत्थमुवसंहरेमाणो इदमाह * एसा सव्वा चदुहिं गाहाहि खवगस्स परूवणा कदा। ६४९६. गयत्थमेदमुवसंहारवक्कं । * एदाओ चेव चत्तारि वि गाहाआ अभवसिद्धियपाओग्गे णेदवाओ। ६४९७. पुवमेदाओ चत्तारि भासगाहाओ भवसिद्धियपाओग्गविलए खवगसेढिसंबंधेण विहासिदाओ। पुणो एण्हिमेवामओ नेव चत्तारि वि भासगाहाओ अट्ठमोए मूलगाहाए अत्यविहासणे पडिबद्धाओ अभवसिद्धियपाओग्गविसये विहासियवाओ, अण्णहा तस्विसये भवबद्धसेसयाणं समयपबद्धसेसयाणं च एत्तियमेत्ताणमेवविएसु दिदिविसेसेसु एदेण कमेणावटाणं होदि ति जाणावणोवायाभावादो त्ति भणिदं होदि। को अभवसिद्धियपाओग्गविसयोणाम? भवसिद्धियाणमभवसिद्धियाणंच जत्थ टिदि-अणुभागबंधादिपरिणामा सरिसा होदूण पयर्टेति सो अभवसिद्धियपाओग्गविसयो ति पदको छोड़कर मूलगाथाके शेष सब पदोंके अर्थको प्रथम और दूसरी भाष्यगाथा द्वारा विभाषा की। पुनः 'कदि वा एगसमएण' इस प्रकार मूलगाथाके इस अन्तिम पदके अर्थकी तीसरी और चौथी भाष्यगाथा द्वारा विभाषा की ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि कितनी सामान्य और असामान्य स्थितियां एक समयमें एकके सम्बन्धसे निरन्तरपनेको प्राप्त होकर उपलब्ध होती हैं ऐसी पृच्छाका सम्बन्ध करके व्याख्यान करनेपर तीसरी और चौथी भाष्यगाथाओंकी स्पष्टरूपसे ही वहाँ प्रतिबद्धता देखी जाती है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा क्षपकके सम्बन्धसे चार भाष्यगाथाओंके अर्थकी विभाषा करके अब प्रकृत अर्थका उपसंहार करते हुए इस सूत्रको कहते हैं। चार भाष्यगाथाओं द्वारा क्षपककी यह सब प्ररूपणा की। ४९६. यह उपसंहार करनेवाला वचन गतार्थ है। * ये चारों भाष्यगाथाएँ अभव्यसिद्धिक जीवोंके भी प्रायोग्य हैं, अतः उनकी अपेक्षा इनको विभाषा करनी चाहिए। ४९७. पूर्वमें ये चारों भाष्यगाथाएं भव्यसिद्धिकप्रायोग्य जीवोंके विषयमें क्षपकश्रेणिके सम्बन्धसे विभाषित की गयों। पुनः इस समय आठवीं मूलगाथाके अर्थको विभाषा करने में प्रतिबद्ध ये हो चारों भाष्यगाथाएं अभव्यसिटिक जोवोंके विषयमें विभाषा करने योग्य हैं, अन्यथा उनके विषयमें इतने भवबद्धशेषों और समयप्रबद्धशेषोंका इतने स्थितिविशेषों में इस क्रमसे अवस्थान होता है यह जाननेका कोई उपाय नहीं पाया जाता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । __ शंका-अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषय क्या है ? समाधान-जहां भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध आदिके योग्य परिणाम सदृश होकर प्रवृत्त होते हैं, वह अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषय है यह कहा जाता है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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