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________________ १५८ षयषवलासहिदे कसायपाहुडे चउत्थावलियादो परमुवरि सेसाओ पंचम-छट्ठ-सत्तमादि आवलियाओ णियमा सव्वासु किट्टीसु होंति, पंचमावलियपढमसमए चेव सेसकिट्टीसु समयाविरोहेण संकेतस्स कोहर्सजलणपुव्वणिरुद्धपदेसग्गस्स बारससु वि संगहकिट्टीसु तदवत्थाए समवटाणदंसणादो त्ति भणिदं होदि । एवं कोहसंजलणणवकबंधमहिकिच्च एसा सव्वा मग्गणा दोहि भासगाहाहि समागदा।माणादिसंजलणेसु वि जहासंभवमेसो अत्थो अणुगंतव्वो। एवमेदीए मग्गणाए कदाए तदो तदियभासगाहाए विहासा समत्ता भवदि। * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६४२९. सुगर्म। (१४५) एदे समयपबद्धा अच्छुत्ता णियमसा इह भवम्मि । सेसा भवबद्धा खलु संछुद्धा होति बोद्धव्वा ॥१९८।। ६४३०. एसा चउत्थभासगाहा पढमभासगाहाणिहिटुस्सेवत्यस्स पुणो वि विसे सयूण परूवणटुमोइण्णा। संपहि एदिस्से गाहाए किंचि अवयवत्थपरामरसं कस्सामो। तं जहा-'एदे समयपबद्धा' एदे अणंतरपलविदा छण्हमावलियाणं समयपबद्धा 'अच्छुत्ता' उदयट्टिवीए असंछुद्धा भवंति । 'इह भवम्हि' एइम्मि वट्टमाणभवग्गहणे 'सेस-भवबद्धा खलु' एवं वट्टमाणभवग्गहणं मोत्तूण सेसासेसकम्मढिदिअन्भंतरभवटिदिगहणपबद्धा सम्वे चेव समयपबद्धा उदए संछुद्धा होति त्ति जाणिदव्वा, तेसिमसंछुद्धभावेणावट्ठाणस्स कारणाणुवलंभावो। तदो समयपबद्धविवक्खाए पुनः ज्ञान करानेका कोई फल नहीं है। इतनी विशेषता है कि 'तेण परं सेसाओ' ऐसा कहनेपर चौथी आवलिके आगे शेष पांचवीं, छठी और सातवीं आवलियां नियमसे सब कृष्टियों में पायी जाती हैं, क्योंकि पांचवों आवलिके प्रथम समय में ही शेष कृष्टियोंमें समयके अविरोधपूर्वक संक्रान्त हुए क्रोधसंज्वलनके पूर्व विवक्षित प्रदेश पुंजका बारह ही संग्रह कृष्टियोंमें उस अवस्थामें अवस्थान देखा जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार क्रोधसंज्वलनके नवकबन्धको अधिकृत करके यह सब मार्गणा दो भाष्यगाथाओं द्वारा की गयो है। मानादि संज्वलनोंके विषय में भी क्रमसे यह अर्थ जान लेना चाहिये । इस प्रकार इस मार्गणाके किये जानेपर तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त होती है। * इससे आगे चौथी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। ६४२९. यह सूत्र सुगम है। (१४५) ये अनन्तर कहे गये समयप्रबद्ध इस भवमें इस क्षपकके नियमसे असंक्षुब्ध रहते हैं। किन्तु शेष भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके नियमसे संक्षुब्ध जानने चाहिये ॥१९॥ ६४३०. यह चौथी भाष्यगाथा प्रथम भाष्यगाथामें निर्दिष्ट किये गये अर्थका ही पुनरपि विशेषरूपसे कथन करने के लिये अवतीर्ण हुई है। अब इस गाथाके किचित् अवयवार्थका परामर्श करेंगे। वह जैसे–'एदे समयपबद्धा' ये अनन्तर कहे गये छह आवलियोंके समयप्रबद्ध 'अच्छुता' उदय स्थितिमें असक्षुब्ध रहते हैं। 'इह भवम्हि' इस वर्तमान भवग्रहणमें 'सेसभवबद्धा खलु' इस भवग्रहणको छोड़कर शेष समस्त कर्मस्थितिके भीतर भवग्रहणस्थितिमें बंधे हुए सभी समयप्रबद्ध उदयमें संक्षुब्ध होते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उनके असंक्षुब्धरूपसे अवस्थानका कोई कारण नहीं उपलब्ध होता। इसलिये समयप्रबद्धकी विवक्षामें ये संक्षुब्ध और असंक्षुब्ध रूपसे इस
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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