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________________ खवगसेढोए सत्तममूलगाहाए विदियभासगाहा १५७ तवियासु संगहकिट्टीसु ओकडगावसेण संकमदि त्ति भणिदं होदि । एवं च संकमो होदि त्ति कादूण पंचमावलियाए तं पदेसग्गं सव्वासु चेव संगहकिट्टीसु जादमिदमाह * एवं पंचमी आवलिया सव्वास किट्टीसु त्ति भण्णइ । ६ ४२५. गयत्थमेदं सुतं । एवं च विदियभामगाहाविहासावसरे चेव तदियभासगाहाए वि अत्यविहासणं काढूण संपहि तिस्से विहासाए विणा समुक्कित्तणामेत्तं चेव कायनमिदि पप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * तदियाए वि भासगाहाए अत्थो एत्थेव परूविदो । णवरि समुक्कित्तणा कायबा। ६४२६. तदियभासगाहमणुच्चारिय तदत्यो चेव विदियभासगाहत्थपरूवणासंबंधेण विहासिदो । तदो तिस्से समुक्कित्तणा चेव एण्हिं कायव्वा त्ति वुत्तं होइ। * तं जहा। ६४२७. सुगमं। (१४४) तदिया सत्तसु किट्टीसु चउत्थी दससु होइ किट्टीसु । तेण परं सेसाओ भवंति सव्वासु किट्टीसु ॥१९७॥ ६४२८. एवं समुक्कित्तिदाए तदियभासगाहाए अत्थो पुव्वमेव विहासिदो ति ण पुणो परूविज्जदे, 'जाणिदजाणावणे फलाभावादो' । णवरि 'तेण परं सेसाओ' एवं भणिदे तत्तो तीसरी संग्रह कृष्टियों में अपकर्षणके कारण संक्रमित होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार संक्रम होता है ऐसा करके पांववी आवलिका वह प्रदेशपुंज सभी संग्रह कृष्टियों में हो जाता है इस बातको कहते हैं * इस प्रकार पांचवीं आवलि सभी संग्रह कृष्टियोंमें कही जाती है। ६४२१. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषाके अवसरपर ही तीसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करके अब उसको विभाषाके बिना केवल समुत्कीर्तना ही करनी चाहिये इस प्रकार कथन करते हुए आगे के सूत्रको कहते हैं * तीसरी भाष्यगाथाका अर्थ भी यहींपर प्ररूपित कर दिया है। इतनी विणेषता है कि उसकी समुत्कीर्तना करनी चाहिये। ६४२६. तीसरी भाष्यगाथाकी उच्चारणा करके उसके अर्थको दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणाके सम्बन्ध से विभाषा की, इसलिये उसकी समुत्कीर्तना हो इस समय करनी चाहिये यह यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * वह जैसे। 5 ४२७. यह सूत्र सुगम है। (१४४) तीसरी आवलि सात संग्रह कृष्टियोंमें, चौथी आवलि दस संग्रह कृष्टियोंमें और उससे आगे शेष आवलियां सब संग्रह कृष्टियों में पायी जाती हैं ॥१९७॥ ६४२८. इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना की। अर्थकी विमाषा पहले ही कर आये हैं, इसलिये उसकी पुनः प्ररूपणा नहीं करते, क्योंकि जिसका ज्ञान करा दिया है उसका
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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