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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ १५२. किट्टीकारगो उवसामगो वि अत्थि, खवगो वि अत्थि । तक्खवगों किट्टीकारयपढमसमय पहूडि जाव चरिमसमय संकामओ ताव मोहणीयपदेसग्गस्स ओकडुगो चेव होदि, ण पुण उक्कडगो त्ति एसो एत्य सुत्तत्यसमुच्चओ । एत्थ 'जाव संकमो' त्ति भणिदे जाव समयाहियावलियमसांपराओ ताव ओकडुणाकरणं पयट्टदि त्ति घेतव्यं ५६ * उवसामगो पुण पढमसमय किट्टीकारगमादि काढूण जाव चरिमसमयसकसा यो ताव ओकडगो, ण पुण उक्कडगो । १५३. कसाये उवसामेंमाणो लोभवेदगद्धाए विदियतिभागम्मि किट्टीओ करेमाणो तदवत्थाए लोभसंजलणस्स द्विदिअणुभागाणमोकडुगो चेव होदि, किट्टीकरणद्धादो हेट्ठा सव्वत्थेव पयट्टमाणस्स उक्कडुणाकरणस्स किट्टीकरणपढमसमए मोहणीयविसए वोच्छेदभादो | तो पढसमय किट्टीकारगमादि काढूण जाव चरिमसमयसकसायो ताव द्विदि-अणुभागेह मोहणीयकम्मपदेसाणमोकडगो चेव एसो उवसामगो ण पुणो उक्कड्डुगो त्ति एसो एक्स्स भावत्थो । जइ वि सुहुमसांपराइयपढमट्ठिदीए आवलिय-पडिआवलियमेत्तसेसाए आगाल - पडिआगालो वोच्छिज्जदि तो वि विदियट्ठिदिसमव द्विदपदेसग्गस्स सत्याने ओकडुणा संभवो अस्थि ति सुमसांपराइयचरिमसमओ एत्थ ओकडुणाकरणस्स मज्जादाभावेण णिद्दिट्टो | तत्तो परं सव्वोवसामणाए उवसंतस्त मोहणीयस्स सव्वेंस करणाणं वोच्छेदणि यमदंसणादो । वसंतकसाए वि वंसणमोहणीयस्स ओकडुणाकरणमत्थि त्ति णासंकणिज्जं, तेणेत्थ अहियारा १५२. कृष्टियों को करनेवाला उपशामक भी होता है और क्षपक भी होता है । उनमें से जो क्षपक है वह कृष्टियोंको करनेके प्रथम समयसे लेकर उनका संक्रम करनेके अन्तिम समय तक मोहनीय कर्म के प्रदेश पुंजका अवकर्षक हो होता है, परन्तु उत्कर्षक नहीं होता यह यहाँ इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इस सूत्र में 'जाव संकमो' ऐसा कहनेपर सूक्ष्म साम्परायिक काल में एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने है तक अपकर्षणाकरण प्रवृत्त रहता है। ऐसा ग्रहण करना चाहिए । * परन्तु उपशामक जीव कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर कषायभावके अन्तिम समय तक अपकर्षक ही होता है, उत्कर्षक नहीं होता । $ १५३. कषायों को उपशमानेवाला जीव लोभवेदक कालके दूसरे त्रिभागमें लोभसम्बन्धो अनुभाग की कृष्टियों को करता हुआ उस अवस्था में लोभ संज्वलनकी स्थिति और अनुभागका अपकर्षक ही होता है, क्योंकि कृष्टिकरणसम्बन्धी कालके पूर्व में सर्वत्र ही प्रवृत्त हुए मोहनीय-विषयक उत्कर्षणकरणकी कृष्टिकरणके प्रथम समय में व्युच्छिति हो जाती है । इसलिए कृष्टिकारक के प्रथम समय से लेकर सकषायभावके अन्तिम समय तक यह उपशामक स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा मोहनीय कर्मप्रदेशोंका अपकर्षक ही होता है, परन्तु उत्कर्षक नहीं होता यह इस सूत्र का है । यद्यपि सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम स्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्र कालके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालको व्युच्छित्ति हो जाती है तो भी द्वितीय स्थिति में अवस्थित प्रदेश पुंज की स्वस्थान में अपकर्षणा सम्भव है, इसलिए सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय तक यहाँपर अपकर्षणाकरणका मर्यादारूपसे निर्देश किया है। उसके बाद सर्वोपशामनाके द्वारा उपशान्त हुए मोहनीयके सभी करणोंकी व्युच्छित्तिका नियम देखा जाता है । शंका-उपशान्तकषाय में भी दर्शनमोहनीयका अपकर्षणाकरण होता है ?
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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