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________________ खवगसेढीए पढममूलागाहाए विदियभासगाहा ५७ भावादो । संपहि एदस्सेव उवसामगस्स ओवरमाणावत्थाए ओकड्डुक्कडुणाकरणाणं पवृत्तिविसेसावहारण उत्तरसुत्तावयारो * पडिवदमाणगो पुण पढमसमयस कसायप्पहूडि ओकडगो वि उक्कडगो वि । $ १५४. ओदर माणगस्स पढमसमय सुहुमसां पराइयप्पहुडि सम्वत्थेवावत्याविसेसे ओकड्डुकडुण करणाणं णत्थि पडिसेहो; सव्वेसि करणाणं तत्थ पुनरुत्पत्तिदंसणादो त्ति वृत्तं होइ । जइ वि एत्थ सुहुमसांपराइयगुणद्वाणे मोहणीयस्स बंधाभावेण उक्कणाए णत्थि संभवो तो वि सति पडुच्च तत्थुक्कडुणाकरणस्स संभवो परुविदो । जहा ओंकड्डुक्कडुणाकरण (ण मेत्य मोहणीय संबंधेण किट्टीकारगम हिकिचच मग्गणा कदा तहा सेसकरणाणं पि जहासंभवं मग्गणा काव्वा, विरोहाभावादो। एवं मग्गणाए कदाए 'किट्टीए कि करणं' ति मूलगाहाए तदिओ अत्यो समत्तो । समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसका यहाँपर अधिकार नहीं है । अब इसी उपशामकके उतरनेकी अवस्थामें अपकर्षण- उत्कर्षणकरणको प्रवृत्ति विशेषका निश्चय करने के लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं * परन्तु गिरनेवाला उपशामक सकषाय होनेके प्रथम समयसे लेकर अपकर्षक भी होता है और उत्कर्षक भी होता है । $ १५४. उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले बीवके सूक्ष्मसाम्परायिक होनेके प्रथम समयसे लेकर सर्वत्र ही अवस्था विशेष में अपकर्षणकरण और उत्कर्षणकरणका प्रतिषेध नहीं है, क्योंकि वहाँ सभी करणों की पुनरुत्पत्ति देखी जाती है यह उक्त कथनका आशय है । यद्यपि यहाँ सूक्ष्मसाम्प रायिक गुणस्थान में मोहनीय कर्मका बन्ध नहीं होनेसे उत्कर्षणाकरण सम्भव नहीं है तो भी शक्तिकी अपेक्षा वहां उत्कर्षणाकरण सम्भव है यह कहा है। तथा जिस प्रकार यहाँपर मोहनीयकर्म के सम्बन्धसे कृष्टिकरणको अधिकृत करके अपकर्षणाकरण और उत्कर्षणाकरणको मार्गणा को है, उसी प्रकार शेष करणोंकी भी यथा सम्भव मार्गणा कर लेनी चाहिए, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार मार्गणा करनेपर 'कृष्टिकरण में कोन करण होता है' इस प्रकार मूल गाथांका तीसरा अर्थ समाप्त होता है । विशेषार्थ - प्रतिपात दो प्रकारका है -उपशामनाक्षयनिमित्तक और भवक्षयनिमित्तक । जो भक्षयनिमित्तक प्रतिपात होता है उसमें तो आठों हो करण उद्घाटित हो जाते हैं । किन्तु उपशामनाक्षयनिमित्तक प्रतिपात में अपकर्षणाकरण और उदीरणाकरण ये दोनों करण वहाँ उद्घाटित हो जाते हैं । तथा इसी प्रकार अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण भी उद्घाटित हो जाते हैं । मात्र उत्कर्षणाकरण और संक्रमकरणका शक्तिकी अपेक्षा हो वहाँ सद्भाव स्वीकार किया गया है । अब रहा बन्धनकरण सो मोहनीय कर्मका नौवें गुणस्थान तक ही बन्ध होता है । अतः वहाँ इसे व्युच्छिन्न जानना चाहिए । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि बन्धन करणके अभाव में उत्कर्षणाकरण और संक्रमकरणको भी शक्ति अपेक्षा नहीं स्वीकार करना चाहिए । सो इस शंकाका समाधान यह है कि बिन कर्मोका बन्धके समय उत्कर्षण और संक्रमण होता है वे कर्म सत्तारूपमें बन्धके अभाव में उस समय भो पाये जाते हैं, अतः वहां शक्ति अपेक्षा इन दोनों करणों को स्वीकार किया नया है । ረ
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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