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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे संपहि मूलगाहाचरिमावयवमस्सियूण चउत्थमत्थं विहासेमाणो तत्थ पडिबद्धाए तदियभासगाहाए अवसरकरण?मुवरिमं सुत्तमाह * 'लक्खणमध किं च किट्टीए' त्ति एत्थ एका भास गाहा । तिस्से समुकित्तणा। 5 १५५. 'लक्खणमध किं च किट्टोए' ति एदम्मि मूलगाहाचरिमावयवबीजपदे णिबद्धस्स चउत्थस्स अत्थस्स विहासण?मेक्का भासगाहा होदि । तिस्से समुक्कित्तणा एसा दट्टव्वा त्ति वुत्तं होइ। (११२) गुणसेढि अणंतगुणा लोभादी कोधपच्छिमपदादो। कम्मरस य अणुभागे किट्टीए लक्खणं एदं ॥१६॥ ६१५६. एदिस्से तदियभासगाहाए किट्टीलक्खणपरूवणमोइण्णाए अथविवरणं कस्सामो। तं जहा-'गुणसेढि अणंतगुणा' गुणस्स सेढी गुणसेढी सा अणंतगुणा भवदि । कम्हि पुण विसए एसा गुगसेढी अणंतगुणा ति वुते 'लोभादी कोधपच्छिमपदादो' लोभजहणकिट्टिमादि कादूण जाव कोहसंजलणसव्वपच्छिमउक्कस्सकिट्टि ति जहाकममवट्टिदचदुसंजलणकम्माणुभागविसए एसा अणंतगुणा गुणओली बटुव्वा' त्ति वुतं होदि । 'किट्टीए लक्षणं एद' लोभसंजलणजहण्णकिट्टिमादि कादूण जाव कोधुक्कस्सकिट्टि त्ति एदासिमणुभागस्स अण्गोण्णं पेक्खियूणाविभागपडिच्छेदुत्तरकमवड्डीए विणा जमणंतगुणवड्डीए पुव्वापुठवफद्दयाणुभागादो अणंत अब मूल गाथाके अन्तिम चरणका अवलम्बन करके चौथे अर्थको विभाषा करते हुए उसमें प्रतिबद्ध तीसरी भाष्यगाथाका अवसर उपस्थित करने के लिए आगेके सत्रको कहते हैं * 'लक्खणमध किं च किट्टोए-कृष्टिका क्या लक्षण है' इस अर्थमें एक भाष्यगाथा आयी है। १५५. 'कृष्टिका क्या लक्षण है' इस मूल गाथाके बोजपदस्वरूप चौथे चरण में निबद्ध चौथे अर्थको विभाषा करने के लिए एक भाष्यगाथा है उसकी यह समुत्कोर्तना जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (११२) लोभ संज्वलनको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोध संज्वलनको सबसे पश्चिम पद अर्थात विलोमक्रमसे अन्तको उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक चारों संज्वलनोंके अनुभागमें गुणश्रेणि उत्तरोत्तर आन्तगुगो होतो है यह कृष्टिका लक्षण है ॥१६५॥ १५६. कृष्टिके लक्षणका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई इस तीसरी भाष्यगाथाके अर्थका खुलासा करेंगे। वह जैसे-'गुण से ढ अणंतगुणा' गुण अर्थात् गुणकारको जो श्रेणि अर्थात् पंक्ति है वह अनन्तगुणी होती है। परन्तु किस विषय में यह गुणश्रेणि अनन्तगुणी होती है ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं-'लोभादो कोधपच्छिमपदादो' अर्थात् लोभको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोध संज्वलनको सबसे पश्चिम (पीछेकी) उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक क्रमसे अवस्थित चारों संज्वलन कर्मों के अनुभागमें यह अनन्तगुणी गुणश्रेणि जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'किट्टोए लक्खणमेद' अर्थात् लोभ संज्वलनकी जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट कृष्टिके प्राप्त होने तक इन सब कृष्टियोंका जो अनुभाग एक-दूसरी कृष्टिको देखते हुए अविभागप्रतिच्छेदोंकी उत्तरोत्तर क्रमवृद्धि के बिना अनन्तगुणो वृद्धिरूपसे तथा पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंके अनुभागसे
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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