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खवगसेढोए पढममूलगाहाए विदियभासगाहा तहाविहणियमासंभवादो। जइ वि एसो अत्थो ओवट्टणतदियमूलगाहाविहासणावसरे पुव्वं जाणाविदो तो वि तस्सेवत्थस्स किट्टीकरणाहियारसंबंधेण विसेसियूण परूवणटुं पुणरुवण्णासो त्तिण एत्थ पुणरत्तदोसासंका कायव्वा ।
६. १४८. संपहि एदिस्से गाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो विहासागंथमुत्तरं भणह* विहासा । 5 १४९. सुगमं । * जहा। $ १५०. एदं पि सुगम।
* जो किट्टीकारगो सो पदेसग्गं ठिदीहिं वा अणुभागेहि वा ओकड्डदि, ण उक्कड्डदि।
$ १५१. गयत्थमेदं सुत्तं । संपहि एदस्सेवत्थस्स विसयविभागमुहेण विसेसियूण परूवणं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाढवेइ-.
* खवगो किट्टीकरणप्पहुडि जाव संकमो ताव ओकड्डगो पदेसग्गस्स ण उक्कड्डगी। विषयक तीसरी मूलगाथाके कथनके समय पहले ही ज्ञान करा आये हैं तो भी उसी अर्थका कृष्टिकरण अधिकारके सम्बन्धसे विशेषरूपसे कथन करकेके लिए पुनः उपन्यास किया है, इसलिए प्रकृतमें पुनरुक्त दोषको आशंका नहीं करनी चाहिए।
विशेपार्थ-'बंधो व संकमो वा उदयो वा' इत्यादि तीसरी मूलगाथा है । उसके उत्तरार्धमें 'अधिगो समो व हीणो' पाठ आया है। उसकी व्याख्या करते हुए सामान्यरूपसे अपकर्षणाविषयक विशेष ऊहापोह पहले ही कर आये हैं। परन्तु यहां कृष्टिकरण अधिकार अवसरप्राप्त है, इसलिए इस प्रसंगसे प्रकृतमें उत्कर्षण और अपकर्षणविषयक क्या व्यवस्था है यह दिखलाना क्रमप्राप्त था, मात्र इसीलिए यहाँपर कृष्टिकरणमें एक अपकर्षणकरण ही घटित होता है यह दिखलानेके लिए उसका पुनः व्याख्यान किया गया है जो उपयुक्त ही है, अतः प्रकृतमें पुनरुक्त दोषको आशंका ही नहीं की जा सकती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।।
१४८ अब इस गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं* अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६१४९. यह वचन सुगम है । * वह जैसे। ६१५०. यह वचन भी सुगम है।
* जो कृष्टियोंको करनेवाला है वह संज्वलन कषायोंके प्रदेशपुंजका स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा अपकर्षण ही करता है, उत्कर्षण नहीं करता।
5 १५१. यह सूत्र गतार्थ है । अब इसी अर्थका विषयविभाग द्वारा विशेषरूपसे कथन करते हुए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
*क्षपक जीव कृष्टिकरणके प्रथम समयसे लेकर उनके संक्रम होनेके अन्तिम समय तक संज्वलन कषायोंके प्रवेशपुंजका अपकर्षक ही होता है, उत्कर्षक नहीं होता।