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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * 'किट्टीए किं करणं' ति एत्थ एका भासगाहा । ६१४५. 'किट्टीए कि करणं' इच्चेदम्मि बोजपदे णिबद्धो जो अत्थो तम्हि विहासिज्जमाणे तत्य पडिबद्धा एक्का भासगाहा दटुल्या ति भणिवं होदि । * तिस्से समुक्त्तिणा। ६१४६. सुगमं। (१११) किट्टी करेदि णियमा ओवट्ठेतो ठिदी य अणुभागे । वड्āतो किट्टीए अकारगो होदि बोद्धव्वो ॥१६४॥ ६१४७. एदिस्से विदियभासगाहाए अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'किट्टी करेदि णियमा ओवटेंतो०' एवं भणिवे चउण्हं संजलणाणं द्विदीओ अणुभागे च ओकडुमाणो चेव किट्टीओ करेदि गाण्णहा ति वुत्तं होदि । एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणटुं गाहापच्छवमोइण्णं'वड्डेतो किट्टीए अकारगो' ठिदि-अणुभागे उक्कड्डेमाणो णियमा किट्टीए कारगो ण होदि त्ति भणिदं होदि । कुदो एस णियमो त्ति चे ? किट्टीकारगपरिणामाणमुक्कड्डणाकरणविरुद्धसहावेणावट्ठाणणियमादो । एवं च मोहपयडीओ पेक्खिदूण भणिवं, णाणावरणाविकम्मेसु एवम्हि विसए * मूल गाथाके 'किट्टोए किं करणं' प्रश्नरूप इस अर्थके उत्तरस्वरूप एक भाष्यगाथा आयी है। ६ १४५. 'क्ट्ठिीए कि करणं' अर्थात् कृष्टिकरणके कालमें कौन करण होता है इस प्रकार इस बीजपदमें जो अर्थ निबद्ध है उसका व्याख्यान करते हुए उक्त अर्थमें प्रतिबद्ध एक भाष्यगाथा जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अब उसको समुत्कोतना करते हैं । 5 १४६. यह वचन सुगम है। (१११) चारों संज्वलन कषायोंको स्थिति और अनुभागका नियमसे अपवर्तना करता हुआ हो कृष्टियोंको करता है तथा उक्त कषायोंके स्थिति और अनुभागको बढ़ाता हुआ कृष्टियोंका अकारक होता है ऐसा जानना चाहिए ॥१६४॥ ६१४७. अब इस दूसरी भाष्यगाथाके अर्थको प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे-'किट्टी करेदि णियमा ओवटेंतो' ऐसा कहनेपर चारों संज्वलनोंकी स्थिति और अनुभागका अपकर्षण करता हुआ ही कृष्टियोंको करता है, अन्य प्रकारसे नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी अर्थका स्पष्टीकरण करने के लिए गाथाका उत्तरार्ध अवनीणं हुआ है 'वड्ढेतो किट्टीए अकारगो' स्थिति और अनुभागका उत्कर्षण करनेवाला जीव नियमसे कृष्टिका कारक नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यह नियम किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि कृष्टियोंको करनेवाले जीवोंके परिणामोंका अवस्थान उत्कर्षणाकरणके विरुद्ध स्वभावरूप होता है ऐसा नियम है । किन्तु यह सब मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंको देखकर कहा है, क्योंकि ज्ञानावरणादि कर्मोंकी अपेक्षा इस विषयमें इस प्रकारका नियम करना सम्भव नहीं है । यद्यपि इस अर्थका अपवर्तना
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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