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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे किट्टोवेदगखासरूवेण पवत्तिहिदि त्ति सुत्तत्यसमुच्चओ । एवाओ तिष्णि वि अद्धाओ सरिसीओ ण होंति, किंतु पढमतिभागो बहुओ, विदियतिभागो विसेसहोणो, तदियतिभागो विसेसहीणो त्ति घेत्तव्यो । २ ३. संपहि एवंविहाए किट्टीकरणद्धाए पढमसमए जो वावारविसेसो द्विविबंधादिविसओ तप्पदुष्पायणद्वमुत्तरो सुत्तपबंधो * अस्सकण्णकरणे णिट्ठिदे तदो से काले अण्णो द्विदिबंधो । ४. अस्सकण्णकरणद्धाए चरिमसमए पुव्विल्लठिदिबंधे णिट्ठिदे तदो अण्णो द्विविबंधो तत्तो समयाविरोहेणोसरियूण किट्टीकारगपढमसमए बंधिदुमाढत्तो त्ति भणिदं होदि । आगे कृष्टि वेदककाल रूपसे प्रवृत्त होगा यह इस सूत्र का समुच्चय रूप अर्थ है । ये तीनों ही काल सदृश नहीं हैं, किन्तु उनमें से प्रथम त्रिभाग बड़ा है, दूसरा त्रिभाग विशेषहीन है और तीसरा त्रिभाग विशेष हीन है । ऐसा ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ - यहाँ अपूर्वं स्पर्धकोंकी रचना करनेके अनन्तर उनके अनुभागके नीचे उसे उत्तरोत्तर अनन्तगुणा - अनन्तगुणा होन करके कृष्टिरूपसे कैसे परिणमाता है इस विषयपर सांगोपांग विचार किया जा रहा है। इस प्रसंगसे सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि पूर्वस्पर्धक, अपूर्वस्पर्धक और कृष्टिकरण कहते किसे हैं । यह तो हम इसी ग्रन्थ भाग १३ में ही बतला आये हैं कि उपशम श्रेणिमें पूर्वस्पर्धकरूप रचना जो अनादि संसारसे लेकर होती आ रही है उससे नीचे यह अनिवृत्ति उपशमकजीव मात्र लोभ संज्वलनकी सूक्ष्म कृष्टिकरणकी क्रियाको ही सम्पन्न करता है । किन्तु यहां क्षपक श्रेणिमें यह जीव पूर्वस्पर्धकोंके नीचे अश्वकर्णकरण के काल में चारों कषायोंके अपूर्वं स्पर्धकोंको रचना करता है और अश्वकर्णकरणका काल सम्पन्न होनेके अनन्तर समयसे लेकर कृष्टिकरणकी क्रिया सम्पन्न करता है । अतः यहां इनके लक्षणोंपर प्रकाश डाल देना आवश्यक प्रतीत होता है । यथा (१) अनादि संसार अवस्था से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें अश्वकर्णकरण क्रियाके प्रारम्भ करनेके पूर्व तक यह जीव जो अनुभागस्पर्धकोंकी रचना करता है उन्हें पूर्वस्पर्धक कहते हैं । (२) संसार अवस्था में जो स्पर्धक कभी भी प्राप्त नहीं हुए, यहाँ तक कि जो स्पर्धक उपशम श्रेणिमें भी प्राप्त नहीं हुए, मात्र क्षपकश्रेणिमें ही अश्वकर्णकरणके काल में पूर्वस्पर्धकों में से उनके नीचे अनन्तगुणहानिरूपसे अपवर्तित होकर जिन स्पर्धकोंकी रचना यह जीव करता है उन्हें अपूर्व स्पर्धक कहते हैं । (३) जिस प्रकार स्पर्धकोंमें अनुभागकी अपेक्षा क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है उस प्रकार जहाँ अनुभाग रचनामें क्रमवृद्धि और क्रमहानि नहीं पाई जाकर यथासम्भव क्रोधादि चारों संज्वलन कषायों के पूर्व स्पर्धकों और अपूर्वं स्पर्धकों में से उनके नीचे प्रदेशपुंजका अपकर्षण कर उत्तरोत्तर अनन्तगुणित हानिरूपसे अनुभागकी रचना करना उसकी कृष्टिकरण संज्ञा है । यह कृष्टिकरण विधि अश्वकर्णकरण विधिके सम्पन्न होनेके अनन्तर समयसे प्रारम्भ होकर पूर्वोक्त कथन के अनुसार द्वितीय त्रिभाग में सम्पन्न होती है । $ ३. अब इस प्रकारके कृष्टिकरणकालके प्रथम त्रिभागमें जो स्थितिबन्ध आदि विषयक व्यापार विशेष होता है उसका कथन करने के लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है * अश्वकर्णकरण के समाप्त होनेपर उसके बाद अनन्तर समय में अन्य स्थितिबन्ध होता है । $ ४. अश्वकर्णकरणकालके अन्तिम समय में पूर्वके स्थितिबन्ध के समाप्त होनेपर उसके बाद अन्य स्थितिबन्ध उससे यथासमय कम होकर कृष्टिकरणके प्रथम समय में बाँधने के लिए ग्रहण करता
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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