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________________ खगसेढी संग्रह किट्टी गुणगारपरूवणा १९ तादो मेत्थ | परूवेयवमिदि चे ? ण, लोभ- मायाणमंतर माहप्पपदंसणटु मेदस्स णिसे, फलोवभादो । तं कथं ? लोभस्स विदियसंगह किट्टी अंतरादो सत्थाणगुणगार संवगामेणानंतगुणमे दं तदियसंगह किट्टी अंतरं पुणो एदम्हादो वि लोभमायाणमंत रमणंतगुणमिदि पदुप्पाइदे सत्याण म्ह पविट्ठा से सगुणगार संवग्गावो अनंतगुणो परत्थाणगुणगारो त्ति जाणिज्जदे । तम्हा एवंविहत्थविसेसपडिबद्धत्तादो णणिव्वसय मेदं सुत्तमिदि सिद्धं । ५३. अथवा तदियसंगह किट्टीए अपुत्रफद्दयादिवग्गणा च अंतरं तदियसंगह किट्टी अंतरमिदि घेत्तव्वं, संगह किट्टी फद्दयंत रस्स वि कथंचि संगहकिट्टोअंतरत्तेण णिद्देसे विरोहाभावादो । ण तहान्भुवगमे एत्तो उवरि माया लोभाणमंतरस्स अनंतगुणत्तविरोहो णेहासंकणिज्जो, लोभस्स सत्याण पाबहुए भण्णमाणे एवं होदि त्ति अप्पणो अपुष्वकद्दएहि संधाणं काढूण पुणो तत्तो णियत्तिण हेट्ठिमपदं चेव घेत्तूण तत्तो लोभ- मायाणमंतरस्साणंत गुणतेण निèसावलंबणे तद्दोंसावलं भादो । ५४. अधवा 'लोभस्स तदियसंगह किट्टी अंतरमणंतगुणं' इदि वृत्ते लोभमायाणमेव तविय पढमसंगह किट्टीणं संधिगुणगारो गहेयव्वो । ण च तहावलंबिज्जमाणे उवरिमसुत्तेण पुणरुत्तभावो वि, 'तदियसंगह किट्टी अंत रमणंतगुणं' इदि सामण्णणिद्देसेणेदेण तं कदममिदि संदेहे समुपणे 'तण शंका- यह तो अनुक्तसिद्ध है, इसलिए यहाँ पर उसका कथन नहीं करना चाहिए ? समाधान- नहीं, क्योंकि लोभ और मायाके अन्तर के माहात्म्यके दिखलाने के लिए इसका निर्देश करनेपर सफलता उपलब्ध होती है । - शंका- वह कैसे ? समाधान- लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टि के अन्तरसे, स्वस्थान गुणकारोंके परस्पर गुणा करनेपर बो लब्ध आवे उसकी अपक्षा भी यह तोसरी संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । पुनः इससे भी लोभ और मायाका अन्तर अनन्तगुणा है ऐसा कथन करनेपर स्वस्थानमें प्रविष्ट हुए समस्त गुणकारों के परस्पर गुणित करनेपर प्राप्त हुई राशिसे परस्थान गुणकार अनन्तगुणा है ऐसा जाना जाता है, इसलिए इस प्रकार के अर्थविशेषस प्रतिबद्ध होने के कारण यह सूत्र विषयरहित नहीं है यह सिद्ध हुआ । $ ५३. अथवा तीसरी संग्रह कृष्टि और अपूर्वं स्पर्धककी आदि वर्गणाका अन्तर तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि संग्रहकृष्टि और स्पर्धक अन्तरका भी किसी अपेक्षा संग्रहकृष्टि अन्तररूपसे निर्देश करनेमें विरोधका अभाव है । और ऐसा नहीं स्वीकार करनेपर इससे आगे माया और लोभके अन्तर के अनन्तगुणत्वका विरोध आता है, किसीका ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लाभके स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करनेपर इस प्रकार होता है, इसलिए अपने अपूर्व स्पर्धकोंसे सन्धान कर पुनः वहांस निवृत्त होकर और अधस्तन पदको ही ग्रहण कर उससे लोभ और मायाके अन्तरका अनन्तगुणेरूपस निर्देशका अवलम्बन करनेपर वह दोष नही प्राप्त होता । ५४. अथवा 'लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' ऐसा कहने पर लोभका तीसरी और मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंक सान्धविषयक गुणकारको हो ग्रहण करना चाहिए। और इस प्रकार अवलम्बन करनेपर अगले सूत्रको लक्ष्य कर पुनरुक्तपना भी नहीं होता, क्योंकि 'तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है' इस प्रकार यह सामान्य निर्देश हानेस वह कौन-सा है १. आ. प्रतौ समुप्पण्णो इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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