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________________ TO जयधवलासहिदे कसायपाहुडे रायरणमुहेण लोभमायाणमंतरमेव तवियसंगहकिट्टीअंतरमिह विवक्खियं, ण तत्तो अण्णमिदि पदुप्पायणट्ठमुवरिमसुत्तारंभे पुणरत्तदोसासंभवादो। * लोभस्स मायाए च अंतरमणंतगुणं । 5 ५५. गयत्यमेदं सुत्तं; अणंतरसुत्ते चे वक्खाणिवत्तादो। * मायाए पढमसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६५६. एवं भणिदे मायाए पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी जेण गुणगारेण गुणिदा अप्पणो चेव विदियसंगहकिट्टोए पढ मकिट्टीपमाणं पावदि सो गुणगारो घेत्तव्यो । सेसं सुगम। * विदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६५७. सुगमं । * तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं । ६५८. एत्थ वि पुव्वं व तोहिं पयारेहिं सुत्तत्थसमत्थणा कायव्वा, विसेसाभावादो। * मायाए माणस्स च अंतरमणंतगुणं । ६५९. ण तदियसंगहकिट्टीअंतरादो एक्स्स भेदो, किंतु 'तदियसंगहकिट्टीअंतरमणंतगुणं' इदि वृत्ते मायाए माणस्स च चरिमपढमसंगहकिट्टीणं जमंतरं तमेव घेत्तव्वं, णाणमिदि पुव्वसुत्त. णिहिस्सेवत्थस्स फुडीकरण?मेर सुत्तमोइण्णमिवि वक्खाणेयध्वं । सेसं सुगमं । ऐसा सन्देह उत्पन्न होनेपर उसके निराकरण द्वारा लोभ और मायाका अन्तर ही तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर यहाँपर विवक्षित है, उससे भिन्न नहीं इस बातका कथन करनेके लिए अगले सूत्रका आरम्भ करनेपर पुनरुक्त दोषका प्राप्त होना असम्भव है। * लोभ संज्वलन और माया संज्वलनका अन्तर अनन्तगुणा है। ५५ यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि इससे अनन्तर पूर्व सूत्रमें ही इसका व्याख्यान कर माये हैं। * उससे मायाको प्रथम संग्रह कृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६५६. ऐसा कहनेपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टि जिस गुणकारसे गुणित की गयो अपनी ही दूसरी संग्रह कृष्टिकी प्रथम कृष्टिके प्रमाणको प्राप्त होती है उस गुणकारको ग्रहण करना चाहिए। शेष कथन सुगम है। * उससे दूसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। 5५७. यह सूत्र सुगम है। * उससे तीसरी संग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है। ६५८. यहाँपर भी तीन प्रकारोंसे सूत्रके अर्थका समर्थन करना चाहिए, क्योंकि उक्त कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * माया और मानका अन्तर अनन्तगुणा है। ६५९. तीसरी संग्रह कृष्टिके अन्तरसे इसमें कोई भेद नहीं है, किन्तु 'तदियसंग्रहकिट्टीअंतरमणंतगुणं' ऐसा कहनेपर मायाको अन्तिम और मानकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंका जो अन्तर है उसे ही ग्रहण करना चाहिए, अन्य नहीं। इस प्रकार पूर्वसूत्रमें निर्दिष्ट किये गये ही अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए यह सूत्र अवतीर्ण हुआ है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए। शेष कथन सुगम है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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