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________________ २३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे गुणो, दोहमसंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्ताविसेसे वि परमागमोवएसबलेण तत्तो एवस्सासंखेज्जगुण सिद्धीदो । * सव्वो अवेदगकालो असंखेज्जगुणो । $ ५८२. एगसमयपबद्धस्स निरंतर - वेदगावेदगकालेतु कम्मद्विदीए अब्भंतरे सुक्कंधारपवखे व परियतमाणेसु तत्थ वेदगकालं मोत्तूण अवेदगकालो चेव संपिडिय गहिदे पयदकालो समुपज्जइ । एसो च पुव्विल्लादो अणुसमय वेदगकालादो' असंखेज्जगुणो । नाणाकंडयसंकलनसरूवस्सेदस्स एगखंडयसरूवादो तत्तो असंखेज्जगुणत्त सिद्धीए विरोहाभावादो । * सव्त्रो वेदगकालो असंखेज्जगुणो । $ ५८३. तस्सेव णिरुद्धसमयपबद्धस्स कम्मद्विदिमन्भंतरे वेदगकालो सव्वत्य संपिडिय गहिदो सन्वो वेदगकालो त्ति भण्णदे; वेदगकालकंडयाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणं सब्वेसिमेव संविडियूण गहिदाणं समूहसिद्धत्तादो । एदस्स च पमाणं कम्मद्विदीए असंखेज्जा भागा भवंति, पुव्विल्लवेदगकालस्स सव्वस्सेव कम्मद्विदीए असंखेज्जदिभागपमाणत्तादो । तदो सिद्धमेदस्स तत्तो असंखेज्जगुणत्तं । * कम्मट्ठदी विसेसाहिया । प्रथम वर्गमूलप्रमाण होनेपर भी परमागमके उपदेशके बलसे पूर्व कालको अपेक्षा यह काल असंख्यातगुणा सिद्ध होता है । * सम्पूर्ण अवेदककाल असंख्यातगुणा है । $५८२. एक समयप्रबद्धके कर्मस्थितिके भीतर निरन्तर वेदककाल और अवेदककालोंके शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष के समान परिवर्तमान होनेपर उनमें से वेदककालको छोड़कर अवेदककालको एकत्रित करके ग्रहण करनेपर प्रकृत काल उत्पन्न होता है । अत: यह काल पिछले अनुसमय वेदककालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है, क्योंकि यह नाना काण्डकोंके संकलनस्वरूप एक काण्डकस्वरूप है, इसलिए इसके पिछले कालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा सिद्ध होने में विरोधका अभाव है । * सम्पूर्ण वेदककाल असंख्यातगुणा है । ५८३. उसी विवक्षित समयप्रबद्धका कर्मस्थितिके भीतर जो पूरी स्थिति के भीतरका एकत्रित किया हुआ वेदककाल ग्रहण किया गया है वह सब वेदककाल कहलाता है, क्योंकि वह पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण ग्रहण किये गये सभी वेदककाल काण्डकोंका एकत्रित समूहरूप सिद्ध होता है । अतः इसका प्रमाण कर्मस्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण है, क्योंकि पिछला पूरा अवेदककाल कर्मस्थितिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यह काल पिछले कालकी अपेक्षा असंख्यातगुणा सिद्ध होता है । * कर्मस्थिति विशेष अधिक है । १. ताम्रप्रती - वेदककालो इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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