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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १७८. जेसु पुण अणुभागेसु एक्का णिरुद्धकिट्टी वट्टदे ण तेसु चेवाणुभागेषु अण्णा किट्टो बट्टदे। किंतु तत्तो भिण्णसहावेसु चेवाणुभागेसु वट्टदि त्ति घेत्तम्वं, किट्टीगदाणु भागस्त जहण्ण. किट्टिप्पहुडि अणंतगुणवड्डोए वड्डिदस्स परोप्परपरिहारेण समवट्ठाणणियमदंसणादो। तम्हा ण तासिमणभागस्स अण्णोण्णविसयसंकरप्पसंगो त्ति एसो एदस्स भावत्थो।
१७९. एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि विदियभासगाहाए समुक्कित्तणं कुणमाणो चुगिसुत्तयारो इदमाह
* विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा। ६१८०. सुगम। (११५) सव्वाओ किट्टीओ विदियट्ठिदीए दु होति सव्विस्से ।
जं किट्टि वेदयदे तिस्से अंसो च पढमाए ॥१६८॥ ६१८१. एसा विदियभासगाहा मूलगाहाए पच्छद्धविहासणटुमोइण्णा । तं जहा-मूलगाहापच्छद्धे कि सव्वासु टिदीसु एक्केक्का किट्टी होदि आहो ण होदि ति पुच्छा णिहिट्ठा। संपहि तहा पयट्टाए पुच्छाए पढमविदियटिदिभेदविवक्खं कादूण तदवयवटिवीसु किट्टीणमवट्ठाणमेदेण सरूवेण
६१७८. परन्तु जिन अनुभागोंमें एक विवक्षित कृष्टि रहती है उन्हीं अनुभागोंमें अन्य कृष्टि नहीं रहती। किन्तु उस अनुभागसे भिन्न स्वभाववाले हो अनुभागोंमें वह दूसरी कृष्टि रहती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक कृष्टिका अनुभाग जघन्य कृष्टिसे अनन्तगुणवृद्धिरूप वृद्धिको प्राप्त हुआ है, इसलिए परस्परके परिहाररूपसे हो कृष्टियोंमें अनुभागके अवस्थानका नियम देखा जाता है। इसलिए उन कृष्टियोंके अनुभागके विषयमें परस्पर संकरका प्रसंग नहीं प्राप्त होता इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ-लोभ संज्वलनकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें जो अनुभाग अर्थात् (फलदान शक्ति ) पाया जाता है उससे दूसरी कृष्टिमें अनन्त गुणवृद्धिको लिये हुए अन्य हो अनुभाग (फलदानशक्ति ) पाया जाता है। आशय यह है कि कृष्टियोंका विभागोकरण ही अनुभागभेदसे किया गया है, इसलिए उक्त सूत्रमें यह कहा है कि जिन अनुभागोंमें एक कृष्टि रहती है उनमें दूसरी कृष्टि नहीं रहती। किन्तु स्थितिके विषयमें ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रत्येक कृष्टिमें अनन्त परमाणु होते हैं, इसलिए उनका अपनी सभी स्थितियों में पाया जाना सम्भव है। अतः अनुभागके समान स्थितिके विषयमें ऐसा विभाग नहीं किया जा सकता।
११७२. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा प्रथम भाष्यगाथाके अर्थ को प्ररूपणा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हुए चूणिसूत्रकार इस सूत्रको कहते हैं
* अब दूसरी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं। ६१८०. यह सूत्र सुगम है।
(११५) सब संग्रह और अवयव कृष्टियां समस्त द्वितीय स्थितिमें होती हैं। किन्तु यह जीव जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसका एक भाग प्रथम स्थितिमें होता है ॥१६८॥
६१८१. यह दूसरी भाष्यगाथा मूलगाथाके उत्तरार्धको प्ररूपणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे-मूलगाथाके उत्तरार्धमें सब स्थितियोंमें एक-एक कृष्टि रहती है अथवा नहीं रहती यह पच्छा निर्दिष्ट की गयी है। अब उक्त पृच्छाके उस प्रकारसे प्रवृत्त होनेपर प्रथम स्थिति