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________________ खैवगसेढोए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टीणं परूवणा २५९ ६६४७. पुवाणुपवीए जा लोभस्स पढमसंगहकिट्टी तिस्से हेट्ठा पढमसमयकिट्टीवेदगो अपवाओ किट्टीओ ओकडिज्जमाणेण पदेसग्गेण णिवत्तेमाणो तत्थ जा जहणिया किट्टी तिस्से बहुगं पदेसगं देदि । तत्तो अणंतभागहीणं जाव अपव्वाणं चरिमकिट्टि ति। तदो अपुवकिट्टीणं चरिमकिट्टीए पदिदपदेसग्गादो लोभपढमसंगहकिट्टीए पुवकिट्टीणं जा जहणिया किट्टी तत्थ असंखेज्जगुणहीणं देदि । तत्तो विदियाए पुवकिट्टीए अणंतभागहीणं देदि । एवं णेदव्वं जाव पढमसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टी ति।। ६६४८. पुणो तिस्से संगहकिट्टीए चरिमकिट्टिम्मि पदिदपदेसग्गादो विदियसंगहकिट्टीए हेट्ठा णिव्वत्तिज्जमाणियाणमपुवकिट्टोणं जहाण्णयाए किट्टीए असंखेज्जगुणं देदि। एत्थ कारणं सुगमं । तदो उवरि अणंतभागहीणं णिसिंचदि जाव अपुव्वाणं चरिमकिट्टी ति । पुणो अपुव्वाणं चरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो पुटवणिव्वत्तिदाणं विदियसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टोणं जा जहण्णकिट्टी तिस्से पदेसपिंडमसंखेज्जगुणं देदि । तत्तो उवरिमाए पदमाणं पदेसपिंडमणंतभागहीणं होदूण गच्छवि । णवरि किट्टीअंतरेसु णिव्यत्तिज्जमाणापुवकिट्टीणं संधीसु पदेसविण्णासभेदो जाणियव्यो। एवमेसो भणिदविधी उवरि वि जाणियूण णेदव्वो।। ६६४९. एवं किट्टीवेदगविदियादिसमएसु वि णिसेगपरूवणमेदमणुगंतव्वं । सुत्ते पुण एवंविहो विसेससंभवो ण विवक्खिओ, एक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं हेढा पादेवकं पुवकिट्टीणमसंखेज्जविभागमेत्तदव्यमोकड्डियूण पुवकिट्टोणमसंखेज्जविभागमेतीओ अपुवकिट्टीओ करेमाणों ६६४७. पूर्वानुपूर्वीको अपेक्षा जो लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि है उससे नोचे प्रथम समयमें कृष्टिवेदक जीव अपकृष्यमाण प्रदेशपुंजसे अपूर्व कृष्टियोंका निपजाता हुआ वहां जो जघन्य कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंजको देता है। उसके बाद अन्तिम अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीन प्रदेशपुंजको देता है। तत्पश्चात् अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिके प्रदेशजसे लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि में जो पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टि होती है उसमें असंख्यातगुणा हीन प्रदेशपुंज देता है। उससे दूसरी पूर्व कृष्टिमें अनन्तभागहीन प्रदेशपुंज देता है। इस प्रकार प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि तक ले जाना चाहिए। ६६४८. पुनः उस संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टि में निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे दूसरी संग्रह कृष्टिके नीचे निवर्त्यमान अपूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। यहां कारणका निर्देश सुगम है। उससे ऊपर अनन्तभागहीन प्रदेशपुंजका अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक सिंचन करता है। पुनः अपूर्व कृष्टियोंको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशजसे दूसरी संग्रह कृष्टिकी पहले निष्पन्न हुई अन्तर कृष्टियोंकी जो जघन्य कृष्टि है उसमें असंख्यातगुणे प्रदेशपंजको देता है। उससे ऊपर कृष्टियोंमें पतित होनेवाला प्रदेशपिण्ड अनन्तभागहीन होकर जाता है। इतनी विशेषता है कि कृष्टि-अन्तरालोंमें निर्वय॑मान अपूर्व कृष्टियोंकी सन्धियों में प्रदेशोंके विन्यासमें फरकको जान लेना चाहिए। इस प्रकार यह कही गयी विधि आगे भी जानकर ले जाना चाहिए। ६६४९. इस प्रकार कृष्टिवेदकके द्वितीयादि समयोंमें भी यह निषेकप्ररूपणा जाननी चाहिए । परन्तु सूत्रमें इस प्रकारका विशेष सम्भव विवक्षित नहीं है, किन्तु ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके १. ता. प्रती उवरि पमाणं इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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