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________________ २५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसपिंडो असंखेज्जगुणो। एवं समयं पडि विसोहिमाहप्पेण किट्टीस णिसिंचमाणपदेसपिंडो असंखेज्जगुणो होदूण गच्छदि जाव किट्टोकरणद्धाए चरिमसमओ ति। एवं होदि त्ति कटु तत्थ वट्टमाणसमयम्मि णिव्वत्तिज्जमाणापुवकिट्टीणं चरिमकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गादो पुविल्लसमयम्मि कदपवकिट्टीणं जहण्णकिट्टीए णिसिच्चमाणपदे. सग्गमसंखेज्जभागहीणं होइ, तत्थ पुवावट्टिददव्वमेत्तेण परिहोणत्तदंसणादो। तत्तो अणंतभाग. हाणीए जहाकम गंतूण पुणो पुग्विल्लसमयम्मि कदसंगहकिट्टीए चरिमकिट्टिम्मि णिसित्तपदेसग्गादो वट्टमाणसमम्मि विदियसंगहकिट्टीए हेटा कीरमाणापुवजहण्णकिट्टीए दिज्जमाणपदेसपिंड. मसंखेज्जभागुत्तरं होइ । पुणो सेसापुवकिट्टीस अणंतभागहीणं चेव होदूण णिवददि । एवमुवरि वि णेदव्वं । दिस्समाणपदेसग्गं पुण सव्वत्थाणंतभागहीणं चेव होदूण चिटुदि । एवमेसो कमो किट्टीकरणद्धाए विदियसमयप्पहुडि जाव तिस्से चेव चरिमसमयो त्ति ताव परूविदो। ६४६. किट्टीवेदगडाए पण एसो विधी ण होदि। किं कारणं ? किट्टीवेदगद्धाए अपुष्यकिट्टीस णिसिच्चमाणपदेसग्गं पुष्यकिट्टीपदेसपिंडस्स असंखेज्जदिमागमेत्तं चेव होइ । तेण किट्टीवेदगद्धाए पढमसमये णिव्वत्तिज्जमाणापवकिट्टीणं चरिमकिट्टीए णिवदिदे पदेसग्गादो पुम्वकिट्टीणं जहण्णकिट्टीए पढमाणं पदेसगमसंखेज्जगुणहोणं होइ, अण्णहा पव्वापुवकिट्टीणं संधीसु एयगोवुच्छ. भावाणुप्पत्तीदो। तदो एवंविहविसेससंभवपदसण?मेत्थ सेढिपरूवणं कस्सामो । तं जहा वाला प्रदेशपुंज उससे असंख्यातगुणा,है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें विशुद्धिके माहात्म्यवश कृष्टियोंमें सींचा जानेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होकर कृष्टिकरणकालके अन्तिम समय तक जाता है। इस प्रकार होता है ऐसा करके वहां वर्तमान समयमें निर्वयंमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त किये गये प्रदेशजसे पिछले समय में की गयो पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें निक्षिप्यमान प्रदेशपुंज असंख्यातभागहीन होता है क्योंकि उसमें पूर्वके अवस्थित द्रव्यमात्रसे हीनता देखी जाती है। पुनः वहाँसे अनन्त भागहानिके क्रमसे यथाक्रम जाकर पुनः पिछले समयमें की गयी संग्रह कृष्टिको अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त किये गये प्रदेशजसे वर्तमान समयमें दूसरी संग्रह कृष्टिके नीचे की जानेवाली अपूर्व जघन्य कृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपंज असंख्यातवां भाग अधिक होता है। पुनः शेष अपूर्व कृष्टियोंमें अनन्तभागहीन ही होकर पतित होता है । इसी प्रकार आगे भी ले जाना चाहिए । परन्तु दृश्यमान प्रदेशपुंज सर्वत्र अनन्तभागहीन होकर ही अवस्थित रहता है। इस प्रकार यह क्रम कृष्टिकरणकालके दूसरे समयसे लेकर उसीके अन्तिम समय तक कहा गया है। ६६४६. परन्तु कृष्टिवेदककाल में यह विधि नहीं होती है, क्योंकि कृष्टिवेदककालमें अपूर्व कृष्टियों में सिंचित होनेवाला प्रदेशपुंज पूर्व कृष्टियोंके प्रदेशपुंजका असंख्यातवा भागमात्र ही होता है। इस कारण कृष्टिवेदककालके प्रथम समयमें निवयंमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टिमें पतित होनेपर प्रदेशपंजसे पूर्व कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टिमें पतित होनेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा हीन होता है, अन्यथा पूर्व और अपूर्व कृष्टियों की सन्धियोंमें एक गोपुच्छापनेकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसलिए इस प्रकारके विशेषकी सम्भावनाको दिखलानेके लिए यहाँपर श्रेणिप्ररूपणा करेंगे। वह जैसे
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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