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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे १५२ सब्वे चेव उदये संछुद्धा भवंति त्ति भणिदं होदि । ६४११. एवमेदेण सुतेण समयपबद्धाणं संछुद्धासंछुद्धभावं णिरूविय संपहि भवबद्धाणं सव्वेसिमेव नियमेण उदये संछुद्धभावपदुप्पायणट्ठमुवरिमसत्तमाह * भवबद्धा पुण णियमा सव्वे उदये संछुद्धा भवंति । ४१२. सव्वे चेव भवबद्धा नियमा एक्स्स खवगस्स उदये संछुद्धा भवंति । कुदो ? एक्कस्स वि भवबद्धस्स उदये असंछुद्धसरूवस्स तक्काल मणुवलंभादो । एदस्स भावत्यो- एक्कम्मि भवम् बद्धसमयबद्धाणमंतरे जइ वि एगस्स समयपबद्धस्त परमाणू उदये संछुद्धा तो विसो भवबद्धो णिच्छयेण उदये संछुद्धो होदित्ति एवेण कारणेण सब्वे भवबद्धा उदये संछुद्धा त्ति भणिदं । एसो च भवबद्धपडिबद्धो अत्यणिद्देसो जइ वि एवम्मि पढमभासगाहासुत्तम्मि णत्थि तो वि उवरि भण्णमाणच उत्थभासगाहावलंबणेण चुष्णिसुते विहासिदो त्ति बटुग्यो, 'पुवेण परं वक्खाणिज्जवि, परेण विपुख्वं वक्खाणिज्जवि' त्ति णायादो । एवं पढमभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता । * एत्तो विदियभासगाहा । ६४१३. पढमभासगा हाविहासणाणंतरमेत्तो विविधभासगाहा समोदारेयव्वा तिवृत्तं होदि । विशेषार्थ - (१) यहाँपर 'उदये असंछुद्धा' का अर्थ उदीरणास्वरूप नहीं होते तथा 'उदये संछुद्धा' का अर्थ उदीरणारूप होते हैं । इस प्रकार इस अर्थको ध्यान में रखकर पूरे प्रकरणका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। (२) टोकामें जो 'अंतरकदपढमसमयप्पहूडि छसु' इत्यादि वचन कहा है सो उसका यह भाव है कि अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करनेके बाद जब जो भी नवकबन्ध समयप्रबद्ध होता है वह सब छह आवलिकाल तक उदीरणारूप नहीं परिणमता यह अर्थ सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए । ४११. इस प्रकार इस सूत्र द्वारा समयप्रबद्धों के संक्षुब्ध ओर असंक्षुब्ध भावका निरूपण करके अब सभी भवबद्धोंके उदयमें नियमसे संक्षुब्धभावका कथन करनेके लिए आगे के सूत्रको कहते हैं परन्तु सब भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयमें नियमसे संक्षुब्ध होते हैं । ६ ४१२. सभी भवबद्ध समयप्रबद्ध नियमसे इस क्षपकके उदयमें संक्षुब्ध होते हैं, क्योंकि इस क्षपकके एक भी भवबद्ध समयप्रबद्ध उदय में असंक्षुब्धस्वरूप नहीं उपलब्ध होता। इसका भावार्थ - एक भव में बद्ध समयप्रबद्धों के अन्तर्गत यद्यपि एक समयप्रबद्धका परमाणु इस क्षपकके उदय में संक्षुब्ध होता है, यही कारण है कि सब भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयमें संक्षुत्र होते हैं यह इसका तात्पर्य है । और यह भवबद्ध से सम्बन्ध रखनेवाला अर्थनिर्देश यद्यपि इस प्रथम भाष्य गाथासूत्र में नहीं है तो भी आगे कही जानेवाली चौथी भाष्य गाथासूत्रका अवलम्बन लेकर चूर्णि सूत्र में व्याख्यान किया गया है ऐसा यहाँ जानना चाहिए । आगे कहे जानेवाले अर्थका पहले व्याख्यान किया जाता है और पहले कहे जानेवाले अर्थका पीछे भी व्याख्यान किया जाता है ऐसा न्याय है । इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाको अर्थ विभाषा समाप्त हुई । * अब इससे आगे दूसरी भाष्यगाथा का अवतार करते हैं । $ ४१३. प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके अनन्तर इससे आगे दूसरी भाष्यगाथाका अवतार करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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