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वगढीए सप्तमीमूलगाहाए विदियमा सगाहा
(१४३) जा चावि बज्झमाणी आवलिया होदि पढमकिट्टीए । पुव्वावलिया लियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु ॥
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४१४. एसा विवियभासगाहा कोहसंजलणणवकबंधपदेसग्गस्स संगहकिट्टीसु संकमो देण कमेण होदि त्ति जाणावणटुमोइण्णा । तं जहा - ' जा चावि बज्झमाणीं' एवं भणिदे जा खलु बज्झमाणी आवलिया बंधावलिया त्ति वृत्तं होइ । तत्थ कम्मपदेसेसु वज्झमाणेसु तस्संबंधेण तिस्से वि उवयारेण तब्ववएसोववत्तीदो । साणियमा कोहसंजलणपढमसंगह किट्टीए होइ । कुदो ? अणदिवर्कतबंधावलियपदेसग्गस्स ओकडुण- परपयडिसं क्रमादिकिरियाणमप्पाओग्गत्तादो । 'पुव्वावलिया नियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु' एवं भणिदे तत्तो अनंतरोवरिमा जा विदियावलिया सा यमाचसु किट्टी बटुव्वा । एदस्स भावत्थो - कोहपढमसंगह किट्टी सरूवेण बद्धपदेसग्गं तत्य बंषावलियमेत्तकालमच्छियूण पुणो विदियावलियपढमसमये बंघावलियादिक्कं मवसेण कोहस्स aa diगह किट्टीए माणपढमसंगह किट्टोए च संकामिज्जदि. तेण सा विदियावलिया कोहस्स तिसु वि संगह किट्टीसु माणपढमसंगह किट्टीए च णियमा समुवलब्भइ त्ति वृत्तं होइ । बंधावलिया दिक्कत • समये चेव सेसासेससंगह किट्टीसु तं पदेसग्गं किष्ण संकामिज्जदे ? ण, आणुपुव्विसंकमवसेण किट्टीसु संकामिज्जमाणस्स णवक बंघपदेसग्गस्स अणंत्तरहेट्ठिमासु तिसु चेव संगहकीट्टीसु संक्रमणियम -
(१४३) जो बध्यमान आवलि है वह प्रथम कृष्टि अर्थात् क्रोध संज्वलनको प्रथम कृष्टिमें पायी जाती है। उसके अनन्तर जो पूर्व अर्थात् प्रथम आवलि है वह नियमसे चार कृष्टियों में पायी जाती है ।
६ ४१४. यह दूसरी भाष्यगाथा क्रोधसंज्वलन के नवकबन्ध कर्मप्रदेशों का संग्रह कृष्टियों में संक्रम इस क्रमसे होता है इस बातका ज्ञान कराने के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे – 'जा चावि बझमाणी' ऐसा कहनेपर जो नियमसे बध्यमान आवलि अर्थात् बन्धावलि है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वहाँ कर्मप्रदेशों के बंधते समय उसके सम्बन्ध से बध्यमान आवलिकी भी उपचारसे बन्धावलि संज्ञा बन जाती है । वह नियमसे क्रोधसंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिमें पायी जाती है, क्योंकि जबतक बन्धावलि अतिक्रान्त नहीं होती है तबतक उसका कर्मप्रदेशपुंज अपवर्तन, परप्रकृतिसंक्रम आदि क्रियाके अयोग्य होता है । 'पुत्रावलिया नियमा अनंतरा चदुसु किट्टीसु' ऐसा कहनेपर उससे अनन्तर उपरिम जो द्वितीय आवलि है वह नियमसे चार कृष्टियोंमें जाननी चाहिए। इसका भावार्थ - क्रोधसंज्वलन के प्रथम संग्रह कृष्टिस्वरूपसे बद्ध कर्मपुंज वहाँ बन्धावलिप्रमाण काल तक तदवस्थ रहकर पुनः द्वितीय आवलिके प्रथम समय में बन्धावलिका अतिक्रम हो जानेके कारण कोषकी ही दो संग्रह कृष्टियों में और मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रामित होतो है, इसलिए वह द्वितीय आवलि क्रोधकी तीनों ही संग्रहकृष्टियोंमें और मानको प्रथम संग्रहकृष्टिमें नियमसे पायो जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका-बन्धावलिके अतिक्रान्त होते समय ही वह प्रदेशपुंज शेष समस्त संग्रह कृष्टियों में क्यों नहीं संक्रमित हो जाता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि आनुपूर्वी संक्रमके कारण कृष्टियों में संक्रम्यमाण नवकबन्ध प्रदेशपुंजके अनन्तर अधस्तन तीन संग्रह कृष्टियों में ही संक्रमका नियम देखा जाता है । इसलिए द्वितीय आवलि चारों ही संग्रह कृष्टियों में पाई जाती है यह सिद्ध हुआ ।