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________________ ( २० ) यह उत्कृष्ट क्रोधकृष्टिकी अपेक्षा विचार है । जघन्यकी अपेक्षा विचार करते हुए बतलाया है कि प्रथम समय में जघन्य क्रोधकृष्टि तीव्र अनुभागवाली होती है । उसकी अपेक्षा उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन अनुभागवाली होती है । दूसरे समय में बन्धमें जघन्य कृष्टि प्रथम समय में उदयरूप जघन्य कृष्टिकी अपेक्षा अनन्तगुणी होन होती है। उससे उसी समय उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होन होती है । इसी प्रकारका समस्त कृष्टि वेदककालके भीतर जानना चाहिये । यहाँ जो निर्वर्गणाको भी इसी प्रकार जाननेका विधान किया है सो उसका आशय इतना ही है कि बन्ध और उदयरूप जघन्य कृष्टियों की अपेक्षा अनन्तगुणी हानि रूपसे जो अपसरण विकल्प होते हैं उन्हें यहाँ जघन्य निर्वर्गणा कहकर इसी प्रकार जानने की सूचना की है । यह क्रोधसंज्वलन सम्बन्ध बन्ध और उदयरूप जघन्य और उत्कृष्ट कृष्टियोंकी निर्वर्गणा प्ररूपण क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिकी अपेक्षा की गई है । यहाँ इतना विशेष जानना कि कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें मान संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका उदय नहीं होता । मात्र बन्ध ही होता है और वह भी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम बहुभाग रूपसे प्रवृत्त होता हुआ प्रतिसमय अनन्त गुणहानि रूपसे ही प्रवृत्त होता । यहाँ प्रथम समय में क्रोध और मान संज्वलनकी शेष संग्रह कृष्टिका बन्ध नहीं होता । माया और लोभ संज्वलन के विषयमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । अर्थात् इन दोनों कषायोंकी प्रथम संग्रह कृष्टियों के अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम बहुभाग रूपसे ही बन्धकी वृत्ति होती है । यह तो बन्ध और उदयको अपेक्षा विचार है । सत्त्वकी अपेक्षा अनुभागका विचार करनेपर वह प्रतिसमय अपवर्तनारूपसे किस प्रकार प्रवृत्त होता है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि बारह कृष्टियोंकी जो अग्र कृष्टि है उससे लेकर एक एक संग्रहकृष्टिके असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्त कृष्टियोंका अपवर्तनाघातके द्वारा घात करके अधस्तन कृष्टिरूपसे उन्हें स्थापित करता है । इसी प्रकार द्वितीयादि समयों में भी यह अपवर्तना चलती ही रहती है । मात्र प्रथम समय में जितनी कृष्टियोंका विनाश होता है उनसे आगे द्वितीयादि समयों में असंख्यात गुणहानिरूपसे उनका विनाश होता है । इस प्रकार यह कृष्टियों की प्रतिसमय अपवर्तना करता हुआ कृष्टिवेदकके प्रथम समय में ही आरम्भ करके कृष्टिकरण कालमें पहले निष्पन्न की गई कृष्टियोंके नीचे और उनके अन्तरालोंमें अन्य अपूर्व कृष्टियोंको जिस विधिसे निष्पन्न करता है उसका खुलासा इस प्रकार जानना चाहिये (१) क्रोधसंज्वलनकी वेद्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियोंकी रचना नहीं होती । (२) क्रोधसंज्वलनकी बध्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता हुआ प्रथम संग्रह कृष्टिके अन्तरालोंमें उन्हें निष्पन्न करता है । (३) शेष ११ संग्रह कृष्टियोंके संक्रम्यमाण प्रदेशोंके अग्रभाग से अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है । (४) तथा मान, माया और लोभ सम्बन्धी बध्यमान, तीन संग्रहकृष्टियोंके प्रदेश के अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न करता है । इस प्रकार इन अपूर्वकृष्टियोंकी निष्पत्ति कैसे होती है इसका यह विचार है । आगे अल्पबहुत्वका विचार करते हुए बतलाया है कि (५) जो बध्यमान संग्रहकृष्टियोंके प्रदेश के अग्रभागसे अपूर्व कृष्टियों की रचना होती है वे अल्प होती हैं । (६) तथा जो संक्रम्यमाण संग्रहकृष्टियोंके प्रदेशानसे अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है वे असंख्यातगुणी होती हैं । (७) जो बध्यमान संग्रहकूष्टियोंके प्रदेशाप्रसे अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है वे चारों बध्यमान संग्रहकृष्टियों में ही पायी जाती हैं, क्योंकि उस समय अन्य संग्रहकृष्टियोंका बन्ध नहीं होता ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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