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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ७७६. जा एसा चरिमसमय बाद रसांपराइयमर्वाह काढूण सुहुमकिट्टीसु दिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिवरूत्रणा अणंतरमेव परूविदा सा चेव पढमसमये सुहुमसांपराइयस्स वि वत्तब्वा, विसेसाभावादो सिवुत्तं होइ । णवरि तत्थ बादरसांप इय किट्टीणं पि संभवो अस्थि त्ति तासु दिस्समाणपदेसग्गमसंखेज्जगुणं होण भिण्णगोवुच्छायारेण निद्दिट्ठ. एत्थ पुण बादरसांपराइय किट्टीस समर्वादपदेसग्गं सव्वमेव णवक बंधु च्छिद्वावलियवज्जं सुहुमसांपराइय किट्टीसरूवेण परिणमिय एयगोवच्छायारेण दट्ठव्वमिदि एदस्स विसेसस्स जाणावणद्वमुत्तरसुत्तारंभी ३०८ * णवरि सेचीयादो जदि बादरसांपराइय किट्टीओ धरेदि तत्थ पदेसग्गं विसेसही हो । $ ७७७. सेचीयादो से चीय संभवमस्सियूण जड़ किह वि एसो पढमसमयसुहुमसांपराओ बादरसांपराइयकट्टीओ धरेदि तो तत्थ विस्समाणपवेसग्गं विसेसहीणमेव होज्ज ति सुत्तत्थसंबंधो। एवं च भणहस्सायमहिपाओ - अणिर्याट्टिकरणचरिमसमए बादरकिट्टीसु दीसमानपदेसपिडो सुहुमपराइको दोसमानपदेस पडादो' असंखेज्जगुणमेत्तो अत्थि । पुणो से काले पढमसमयसुमसांपराइयभावे वट्टमाणस्म बादरकिट्टोगदं सव्वमेव पवेसग्गं सुहुमकिट्टीसरूवेणेव परिणमियण चिदि । एवं च सुमकिट्टीसरूवेण परिणदपदेस संतकम्मं बादरकिट्टीसरूवेण तदवस्थाए णत्थि ७७६ अन्तिम समयवन बादरसाम्परायिकको मर्यादा करके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपुंजकी जो यह श्रेणिप्ररूपणा अनन्तरपूर्व ही कह आये हैं वही श्रेणिप्ररूपणा सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम समय में भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इतनी विशेषता है कि वहाँपर बादरसाम्परायिक कृष्टियों का भी सम्भव है, इसलिए उनमें दिखनेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होकर भिन्न गोपुच्छाकाररूपसे निर्दिष्ट किया गया है, परन्तु यहांपर बादरसाम्परायिक कृष्टियों में अवस्थित हुआ पूरा ही प्रदेशपुंज नवबन्ध उच्छिष्टावलिको छोड़कर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे परिणमनकर एक गोपुच्छाकाररूपसे होता है ऐसा जानना चाहिए, इस प्रकार इस विशेषका ज्ञान करानेके लिये आगे के सूत्रको आरम्भ करते हैं * इतनी विशेषता है कि से बीयरूपसे यदि बादरसाम्परायिक कृष्टियों को धरता है तो वहाँ पर प्रवेशपुंज विशेष हीन होता है । १७७७. से चीयरूपसे अर्थात् सेचीय सम्भवका आश्रय करके यदि किसी प्रकार यह प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीव बादरसाम्परायिक कृष्टियोंको धरता है तो वहाँपर दिखनेवाला प्रदेश पुंज विशेष हीन ही होता यह इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है । और इस प्रकार कहनेवाले आचार्यका अभिप्राय है- अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समय में बादर कृष्टियों में दिखनेवाला प्रदेश पिण्ड सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपिण्ड से असंख्यातगुणा होता है । पुनः तदनन्तर समय प्रथम समवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक भावमें विद्यमान क्षपक जीवके बादर कृष्टिगत समस्त प्रदेशपुंज सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिरूपसे ही परिणमकर अवस्थित रहता है। और इस प्रकार सूक्ष्म कृष्टिरूपसे परिणत हुआ प्रदेशसत्कर्म उस अवस्था में बादरकुष्टिरूपसे नहीं ही है । वहाँपर यद्यपि सूक्ष्म १. वा. प्रती दीसमाणपदेस पिंडो इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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