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________________ खवगढीए सुहुमसांपरा यियविसयकपरूवणा ३०९ चैव, तत्थ जइ वि पढमसमयसुहुमसांपराइयस्स बादरकिट्टीणमच्चंताभावो चैव तो वि सेचीयसंभवमस्तियूण तासिमत्थित्तं बुद्धीए परिकप्पिय तव्विसया सेढिपरूवणा किह वि पयट्टाविज्जदि । तो वि तत्थ दिस्समाणपदेसग्गं सुहुमकिट्टीसु दिस्समानपदेसग्गादी दिसेसहीणमेव होज्ज, ण तत्तो असंखेज्जगुणं, एयगोवुच्छसरूवेण तक्कालमेव किट्टीगदसयलदव्यस्स परिणामणियमदंसणादो त्ति । तम्हा संभवसच्चमस्सियूण पयट्टत्तादो ण सुत्तमेदमसंभवदोसदूसियमिदि पडिवज्जेयत्वं । एवमेत्तिएण पबंधेण सुहुमसां पराइयकिट्टीकारयस्स तत्थ दिज्जमाणदिस्समाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं काढूण संपहि सुमसांप इय किट्टीओ णिव्वत्तेमाणस्स तदवत्थाए लोभविदिय-तदियबादरसां पराइय किट्टीहितोपदेस संतकम्मस्स पवृत्तिविसेसावहारणद्वमुवरिमप्पा बहुअपबंघमाढवेइ * सुहुममांपराइयकिट्टीसु कीरमाणीसु लोभस्स चरिमादो बादरसांपराइय किट्टीदो सुहुमसांपराइय किट्टीए संकमदि पदेसग्गं थोवं । ६ ७७८. सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेमाणो लोभस्स विदिय-तवियसांपराइय किट्टी हितो पदेसग्गस्सासंखेजवभाग मोकडुणासंकमेण सहुमसांपराइय किट्टीसु संकामेदि । एवं च संकामे माणस• तत्थ चरिमादो बावरसांपरा इय किट्टीवो सहुमसांपराइय किट्टीस जं पदेसग्ग मोकडुणावसेण संकम दि तं थोवमिदि वृत्तं होइ । * लोभस्स विदियकिट्टीदो चरिमबादरसपराइय किट्टीए संकमदि पदेसग्गं संजगुणं । साम्परायिक के प्रथम समयमें बादर कृष्टियोंका अत्यन्त अभाव ही है तो भी सेचीय सम्भवका आश्रय करके बुद्धिमें उनके अस्तित्वकी परिकल्पना करके तद्विषयक श्रेणिप्ररूपणा कथमपि प्रवर्त करायी गयी है तो भी वहाँपर दिखनेवाला प्रदेशपुंज सूक्ष्म कृष्टियों में दिखनेवाले प्रदेशपुंज से विशेष होन हो होवे, उससे असंख्यातगुणा नहीं होवे, क्योकि एक गोपुच्छारूपसे उसी समय कृष्टिगत समस्त द्रव्यके परिणामका नियम देखा जाता है । इसलिये सम्भव सत्यका आश्रय लेकर इस सूत्र के प्रवर्त होनेसे यह सूत्र असम्भव दोषसे दूषित नहीं होता यह निश्चय करना चाहिए । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारकके उस अवस्था में दिये जानेवाले और दिखनेवाले प्रदेशपुंज की श्रेणिप्ररूपणा करके अब सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको निर्वर्त्यमान क्षपक जीवके उस अवस्था में लोभकी दूसरी ओर तीसरी बादर साम्परायिक कृष्टियों में से प्रदेश सत्कर्मको प्रवृतिविशेषका अवधारण करनेके लिए अल्पबहुत्व प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके किये जानेपर लोभको अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिसे सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें स्तोक प्रदेशपुंजको संक्रमित करता है । ६ ७७८ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों को करनेवाला क्षपक जीव लोभकी दूसरी व तीसरी साम्परायिक कृष्टियों में से प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागको अपकर्षण संक्रम द्वारा सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियों में संक्रमित करता है । और इस प्रकार संक्रम करनेवाले क्षपकके वहाँपर अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिसे सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टियों में जो प्रदेशपुंज अपकर्षणवश संक्रमित होता है वह थोड़ा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * लोभकी दूसरी कृष्टिसे अन्तिम बादर साम्परायिक कृष्टिमें संख्यातगुणे प्रवेशपुंजको संक्रमित करता है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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