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________________ ३०४ पयधवलासहिदे कसायपाहुडे * जा विदियसमये जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टो तिस्से पदेसग्गं दिज्जदि बहुअं। ६७६३. पढमसमयोकड्डिददव्वावो असंखेज्जगुणं पदेसग्गमोकड्डियूण विवियसमये पुव्वा. पुवकिट्टीसु जहापविभागं णिसिंचमाणो तत्थ जा विदियसमये जहणिया सुहमसांपराइयकिट्टी तक्कालमेव णिवत्तिज्जमाणा तिस्से बहुसं पदेसरगं णिसिंचदि ति सुत्तत्थो । सेसं सुगमं । * विदियाए किट्टीए अणंतमागहोणं । ६७६४. सुगमं। * एवं गंतूण पढमसमये जा जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टी तत्थ असंखेन्जदिभागहीणं । ६७६५. एत्य कारणं जहा किट्टोकरणद्धाए पुव्वापुवकिट्टीणं संधिविसये परूविवं तहा चेव परवेयव्वं; विसेसाभावादो। * तत्तो अणंतभागहीणं जाव अपुव्वं णिव्वत्तिज्जमाणगं ण पावदि । ७६६. तत्तो परमणंतराणंतरादो अणंतभागहीणं कादूण णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव ओकड्डणभागहारमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण तम्मि उद्देसे किट्टी अंतरे णिव्वत्तिज्जमाणमपुवकिट्टो * जो दूसरे समयमें जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंज दिया जाता है। ६७६३. प्रथम समयमें अपकर्षित हुए द्रव्यसे असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके दूसरे समय में पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंमें यथाविभाग सिंचन करता हुआ क्षपक जीव वहां जो दूसरे समयमें जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि उसी समय निर्वर्त्यमान कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंजको सिंचित करता है यह इस सूत्रका अर्थ है । शेष कथन सुगम है। * दूसरी कृष्टिमें अनन्तभागहीन प्रवेशपुंजका सिंचन करता है। ६७६४. यह सूत्र सुगम है। * इस प्रकार जाकर प्रथम समयमें जो जघन्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि है उसमें असंख्यातवें भागहीन द्रव्यको सींचता है। ६७६५. यहाँपर कृष्टिकरण कालसम्बन्धी पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंको सन्धियोंमें जिस प्रकार कारणका कथन किया है उसी प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * उसके आगे निवयंमान अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक अनन्तभागहीन द्रव्यका सिंचन करता है। ६७६६. उससे आगे अनन्तर-अनन्तर क्रमसे अनन्तभागहीन करके सिंचन करता हुआ यह क्षपक जीव तबतक जाता है जब जाकर अपकर्षणभागहारप्रमाण अध्वान ऊपर जाकर उस स्थानपर कृष्टि अंतरालमें निर्वय॑मान अपूर्व कृष्टिको प्राप्त करके तदनन्तर अधस्तन पूर्व कृष्टि
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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