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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे सवित्र मणुमग्गिदत्तादो । तम्हा णेदाणिमेदिस्से विहासा कीरवि त्ति वृत्तं होदि । जइ एवं, णारंभणिज्जमेदं गाहासुत्तं, पढमगाहासत्तेणेव गयत्थत्तादोत्ति णासंकणिज्जं तत्थासंखेज्जेसु दिवसे एक्क्का किट्टी होदि त्ति सामण्णेण णिद्दिट्ठस्स अत्यस्स पढमविदिय द्विदोह विसेसिवेदिज्जमाना वेदिज्जमान किट्टी संबंधेण परूवणट्टमेदस्स गाहासुत्तावयारस्स सहलत्तदंसणादो । ७० $ १८४. एवमेत्तिएण पबंधेण विदियमूलगाहाए अत्यविहासणं समानिय संपहि जहाबसरपत्ता तदियमूल गाहाए अवधारं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह * एत्तो तदियाए मूलगाहाए समुक्कित्तणा । १८५. सुगमं । (११६) किट्टी च पदेसग्गेणणुभागग्गण का च कालेण । अधिमा समाव होणा गुणेण किं वा विसेसेण ॥ १६९॥ १८६. किममेसा तदियमूलगा हा समोइण्णा ? पढममूलगाहाए निद्दिलक्खणाण मवहारिदपमाणविसेसाणं च किट्टोणं पुणो विदियमूलगाहाए द्विदीसु अणुभागेषु च अवद्वाणविसेसं परूविय अवस्थानका विस्तार के साथ अनुसन्धान कर आये हैं, इसलिए इस समय इसकी विभाषा नहीं करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- यदि ऐसा है तो इस भाष्यगाथा सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि प्रथम भाष्यगाथा सूत्र से हो उक्त अर्थका ज्ञान हो जाता है । समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहाँपर असंख्यात स्थिति विशेषों में एक-एक कृष्टि रहती है इस प्रकार सामान्यरूपसे निर्दिष्ट किये गये अर्थका प्रथम और द्वितीय स्थितियों के द्वारा विशेषताको प्राप्त हुई वेद्यमान और अवेद्यमान कृष्टियोंके सम्बन्धसे कथन करने के लिए इस भाष्यगाथा सूत्रका अवतार सफल देखा जाता है । विशेषार्थ - प्रथम भाष्यगाथामें इतना ही कहा था कि एक-एक कृष्टि असंख्यात स्थिति विशेषोंमें रहती है, परन्तु यहांपर स्थितिके प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति ऐसे भेद करके वेद्यमान संग्रह कृष्टिका कुछ अंश प्रथम स्थितिमें रहता है और अवेद्यमान कृष्टियां द्वितीय स्थिति में रहती हैं इस बात का विशेषरूपसे ज्ञान कराने के लिए इस भाष्यगाथा सूत्रका अवतार हुआ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । १८४. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा दूसरी मूलगाथा के अर्थकी विभाषा समाप्त करके अब क्रमसे अवसरप्राप्त तीसरी मूलगाथाका अवतार करते हुए आगे के प्रबन्धको कहते हैं* अब इससे आगे तीसरी मूलगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं । ६ १८५. यह सूत्र सुगम है । (११६) कौन कृष्टि किस कृष्टिसे प्रदेशपुंजको अपेक्षा, अनुभागसमूहकी अपेक्षा और कालकी अपेक्षा अधिक है, समान है, या हीन है। इस प्रकार गुणकारको अपेक्षा या विशेषकी अपेक्षा कौन कृष्टि किस कृष्टिसे हीन या अधिक है ॥ १६९ ॥ § १८६. शंका - यह मूल गाथा किसलिए अवतीर्ण हुई है ? समाधान - प्रथम मूल गाथा द्वारा जिनका लक्षण कहा गया है और जिनके प्रमाणविशेषका अवधारण किया है उन कृष्टियोंका पुनः दूसरी मूल गाथा द्वारा स्थितियों और अनुभागों में
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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