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________________ खवगसेढोए गुणसेढीए दिज्जमानपदेसग्गपरूवणा गोवच्छभावाणुप्पत्तदो । तेण कारणेण अंतरचरिमट्ठिदिम्मि णिसित्तपदेसादो विदियद्विदीए आदिट्ठिदिम्मि णिसिचमाणपदेसपिडो संखेज्जगुणहीणो जादो । ३२७ ६८१५. अथवा अंतरच रिमट्ठिदिम्मि णिसित्तपदेस पिंडादो विदियट्ठिदिपढमणिसे गम्मि निसिचमाणदव्वं संखेज्जगुणहोणं होदि त्ति एदस्स कारणमेवं वा वत्तव्वं । तं कथं ? अंतरष्ट्ठिदीहि पढमट्ठिदिखंडयायामे भागे हिदे भागलद्धं संखेज्जरुवाणि विरलिय पढमट्ठिदिखंडयायामं समखंडं काण दिणे तत्थेक्क्कस्स रूवस्स अंतरायामपमाणं पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदं घेतून तक्कालिय गुण सेढिसोसयादो उवरिमअंतर द्विदीसु ठविदे अंतरर्राट्ठदिपदेसग्गं विदियट्ठिदिपदेसग्गं च दो वि थोरुच्चयेण एयगोवुच्छाणि जादाणि । पुणो तत्थ विदियरूवधरिदमेगखंडं घेत्तूण संखेज्जफालीओ कादव्धाओ । ताअ केत्तियाओ त्ति भणिदे अंतर द्विदिआयामेण गुणसेढ मोत्तूण सेससव्वद्विदीसु भाजिदासु भागलद्धमेत्तीओ फालीओ कादव्वाओ । एवं च काढूण तत्थेगफालि घेत्तण अंतर पुवं विदखंडस्स पासे ट्ठविध पुणो सेसफालीओ जहाकमं विदियट्ठिदीए ठवेदव्त्राओ । एवं सेसवधरिदखंडाणि वि काढूण समयाविरोहेण ढोएदव्वाणि । एवं काढूण जोइदे अतरचरिमद्विदीए पदिदन्वादो विदियट्ठिदीए आदिट्ठिदिम्मि णिवदिदपदेसग्गं संखेज्जगुणहोणं होदित्ति णिच्छओ कायो । एवमेत्तिएण पबंधेण पढनट्ठिदिखंडयचरिमफालिमवह काढूण सहुमसांपराइयेकड्डियूण णिचिमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणं काढूण संपहि विदियादो ट्ठिदिखंडयादो ओड्डियूण से द्वितीय स्थिति हो सकती । इस कारण अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थिति में निक्षिप्त हुए प्रदेश सम्बन्धी आदि स्थिति में निः सिंचमान प्रदेशपिण्ड संख्यातगुणा हीन हो जाता है । $ ८१५. अथवा अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थिति में निक्षिप्त हुए प्रदेश पिण्ड से द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेक में निसिच्यमान द्रव्य संख्यातगुणा हीन होता है इस प्रकार इसका कारण इस प्रकार कहना चाहिए । शंका- वह कैसे ? समाधान - अन्तर स्थितियोंके द्वारा प्रथमस्थितिकाण्डकके आयाममें भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उससम्बन्धी संख्यात अंकों को विरलित करके विरलित प्रत्येक अंकके प्रति प्रथम स्थितिकाण्डक के आयाम को समान खण्ड करके देयरूप से देने पर वहां एक-एक अंकके प्रति अन्तरायामका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः यहाँ पर एक अंकके प्रति प्राप्त आयामको ग्रहण करके उस समय के गुणश्रेणिशीषं से उपरिम अन्तर स्थितियों में स्थापित कर देनेपर अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशपंज और द्वितीय स्थितिसम्बन्धी प्रदेशपुंज दोनों ही एकरूप होकर एक गोपुच्छारूप हो जाते हैं। पुनः वहां पर द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त एक खण्डको ग्रहण करके उसकी संख्यात फालियां करनी चाहिए। वे कितनी होती हैं ऐसा पूछनेपर गुणश्रेणिको छोड़कर अन्तरस्थितिके आयाम द्वारा शेष सब स्थितियोंको भाजित करनेपर जो भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण फालियाँ करनी चाहिए। और ऐसा करके तथा वहां एक फालिको ग्रहण करके अन्तर स्थितियों में पहले स्थापित खण्ड के पास स्थापित करके पुनः शेष फालियोंको यथाक्रम द्वितोय स्थिति में स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार शेष अंकोंके प्रति प्राप्त खण्डों को भी करके समय के अविरोधपूर्वक स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार करके देखनेपर अन्तरसम्बन्धी अन्तिम स्थिति में पतित द्रव्यसे द्वितीय स्थितिसम्बन्धी आदि स्थिति में पतित प्रदेशपुंज संख्यातगुणा हीन होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिकी मर्यादा करके सूक्ष्मसाम्परायिक के द्वारा अपकर्षित करके सींचे जानेवाले प्रदेशपुंज की श्रेणिप्ररूपणा
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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