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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे णिसिच्चमाणपदेसग्गस्स सेढिपरूवणा केरिसी होदित्ति आसंकाए तणिण्णय विहाणट्ट मुवरिमं पबंधमाढवेइ - ३२८ * विदियादो ठिदिखंडयादो ओकड्डियूण पदेसग्गमुदये दिज्जदि तं थोवं । $ ८१६. पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालीए णिवदिदाए पुणो से काले विदियट्ठिदिखंडय मागाएमाणो पढमट्ठदिखंडयादो विसेसहोणायामेण खंडयमागाएदि । एवमागादपढमसमये तत्तो पदेसग्गस्सा संखेज्जदिभागमोर्काड्डियूण उदयादिगुणसेढोए णिक्खिवमाणो उदयद्वदीए ताव थोवयरं पदेसग्गं णिसिचदि, तस्स थोवभावेण विणा उवरिमट्ठिदीसु निसिचमाणपदेसग्गस्स गुणसे ढिआयारेण समवद्वाणाणुववत्तदो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । * तदो दिजदि असंखेज्जगुणाए सेढीए ताव जाब गुणसेढिसीसयादो उवरिमातरा एक्का द्विदित्ति । ८१७. तो उदये जिसित्तपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसग्गं तत्तो अनंत रोवरमाए विद या ट्टिदीए णिसिचदि । एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिसिचमाणो ताव गच्छदि जाव अंतो मुहुत्त - वरगंतून अवदिगुगसेढिसीसयं पत्तो त्ति; ओकडिदसयल दव्वस्सा संखेज्जदिभागमेत्तदव्वमेदम्मि अद्धाणे गुणसेढियारेण निसिचमाणस्स परिष्फुडमेव तहाभावदंसणादो । पुणो गुणसेढिसोसयादो करके अद्वितीय स्थितिकाण्डकसे अपकर्षित करके सींचे जानेवाले प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा कैसी होती है ऐसी आशंका होनेपर उसके निर्णयका कथन करने के लिए आगे के प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * द्वितीय स्थितिकाण्डकसे अपकर्षित करके उदय में जितना प्रदेशपुंज देता है वह सबसे थोड़ा है। ९८१६. प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतित होनेपर पुनः तदनन्तर समय में द्वितीय स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ प्रथम स्थितिकाण्डकसे विशेष होन आयामके द्वारा उस काण्डकको ग्रहण करता है। इस प्रकार ग्रहण किये जाने के प्रथम समय में उसमें से प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागका अपवर्षंण करके उदयादि गुणश्रेणिरूप से निक्षेप करता हुआ सर्वप्रथम उदयस्थिति में स्तोकतर प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है, क्योंकि उसके स्तोकपनेके बिना उपरिमस्थितियों में सींचे जानेवाले प्रदेशपुंजका गुणश्रेणिके आकार से सम्यक् अवस्थान नहीं बन सकता, यहाँ यह इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । * उसके बाद गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर एक स्थितिके प्राप्त होनेतक असंख्यात गुणश्रेणिरूपसे प्रदेशपुंजको देता है । § ८१७. उसके बाद उदयमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंजसे उपरिम अनन्तर द्वितीय स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। इस प्रकार असंख्यातगुणित श्रेणिरूप से अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक सिंचन करता हुआ जाता है, क्योंकि अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको इस आयाममें गुणश्रेणि आकारके द्वारा सिंचन करनेवाले क्षपक जोवके स्पष्ट हो उस प्रकारका काम होता हुआ देखा जाता है । पुनः गुणश्रेणी से उपरम अनन्तर एक स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजका सिंचन करता है, क्योंकि
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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