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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मोहणीयसयलदव्वस्स चउवीसभागमेतं होइ। कोहविदियसंगहकिट्टीए वि अप्पणो मूलदव्वं मोहणीयसयलदव्वं पेक्खिविय चउवीसभागमेतं चेव भवदि । पुणो एक्स्सुवरि कोहपढमसंगहकिट्टीए तेरसचउवीसभागमेतदव्वं च पविट्टमत्थि; दव्वाणुसारेणेव अंतरकिट्टोणमायामो होवि ति एदेण कारणेण हेट्ठिमरासिणा उवरिमरासिम्मि ओवट्टिदे चोद्दसरूवमेत्तगुणगारसमुप्पत्ती ण विरुज्झदे।
६६९६. जहा अंतरकिट्टोणमेदमप्पाबहुअमणुमग्गिदं एवं तत्थतणपदेसपिंडस्स वि थोवबहुः त्ताणुगमो कायस्वो त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* पदेसग्गस्स वि एवं चेव अप्पाबहुअं।
६६९७. 'कायब्वं' इदि वक्कसेसो एत्थ कायव्वो। सेसं सुगम। एवमेदेण विहाणेण कोह. विदियसंगहकिट्टि वेदेमाणस्स पढमट्टिदो कमेण परिहीयमाणा जाधे आवलिय-पडिआवलियमेत्तोओ सेसा ताधे जो परूवणाभेदो तण्णिद्देसकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो -
द्रव्य मोहनीयके समस्त द्रव्यके चौबीसवें भागप्रमाण होता है। क्राधसंज्वलनको दूसरो संग्रह कृष्टिका अपना मूल द्रव्य भी मोहनीयके समस्त द्रव्यको देखते हुए चौबीसवें भागप्रमाण ही होता है । पुनः इसके ऊपर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें तेरह बटे चौबीस भागप्रमाण द्रव्य प्रविष्ट है, क्योंकि द्रव्यके अनुसार ही अन्तर कृष्टियोंका आयाम होता है। इस कारण अधस्तन राशिसे उपरिम राशिके भाजित करनेपर चौदह संख्याप्रमाण गुणकारकी उत्पत्ति विरोधको प्राप्त नहीं होती।
विशेषार्थ-यह तो हम पहले ही सूचित कर आये हैं कि अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा मोहनीयका समस्त द्रव्य ४९ अंक प्रमाण कल्पित करनेपर नो नोकषायोंको जितना द्रव्य मिलता है उससे कुछ अधिक द्रव्य अनन्तानुबन्धी आदि चारों कषायोंको मिलता है, इस नियमके अनुसार नौ नोकषायोंका कुल द्रव्य २४ अंकप्रमाण और कषायोंका समस्त द्रव्य २५ अंकप्रमाण मान लेनेपर मोहनीयका समस्त द्रव्य ४९ अंकप्रमाण प्राप्त हो जाता है। पुनः कषायोंके द्रव्यको १२ संग्रह कृष्टियोंमें विभक्त करनेपर प्रत्येक संग्रह कृष्टिको साधिक दोभागप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है। चूंकि क्षपणाकालमें नोकषायोंके द्रव्यका कषायोंमें संक्रमित होनेपर क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका कूल द्रव्य २४ + २ = २६ अंकप्रमाण होता है जो क्रोधसंज्वलनको द्वितीय संग्रह कृष्टिको अपेक्षा समस्त द्रव्य के १३ भागप्रमाण होता है। पूनः इसमें क्रोधको द्वितीय संग्रह कृष्टिका द्रव्य प्रविष्ट होनेपर वह १४ भागप्रमाण हो जाता है। कारण स्पष्ट है। इसी प्रकार आगे भी सब संग्रह कृष्टियोंके द्रव्यके प्रविष्ट होनेपर अन्तमें पूरे, द्रव्यका प्रमाण आ जाता है। इसी तथ्यको यहां स्पष्ट किया गया है ऐसा समझना चाहिए।
5६९६. जिस प्रकार अन्तर कृष्टियोंके भेदोंके अल्पबहुत्वका अनुगम किया उसी प्रकार उनमें अवस्थित प्रदेशपिण्डका अनुगम करना चाहिए इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* अन्तर कृष्टियोंके प्रदेशपुंजका भी इसी प्रकार अल्पबहुत्व करना चाहिए।
६९७. सूत्र में 'कायव्वं' यह वाक्य शेष है। आशय यह है कि 'अल्पबहुत्व करना चाहिए' ऐसा अर्थ कर लेना। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार इस विधिसे क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपकके प्रथम स्थिति क्रमसे होन होती हुई जब आवलि और प्रतिआवलिप्रमाण शेष रहती है उस समय जो प्ररूपणा भेद होता है उसका निर्देश करने के लिए आगेके सूत्रको बारम्भ करते हैं