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________________ aarसेढीए तदियमूलगाहाए तदियभासगाहा ८५ $ २२२. एत्थ 'जहणिया' वग्गणा त्ति वुले जहण्ण किट्टी सगाणंतस रिसधणियपरमाणु सहिदा गया। एदिस्से पदेसग्गमुवरिमासेस किट्टीणं पदेसग्गादो बहुगमिदि वृत्तं होदि । * विदिया वग्गणाए पदेसग्गं विसेसहीणमणंतभागेण । $ २२३. एत्य वि विदिकिट्टी चेव सरिसधणियाणंतपरमाणुसहिया विदिया वग्गणाति घेत्तग्वा । अनंतभागेणेत्ति वृत्ते एगवग्गणविसेसमेत्तेणेत्ति घेत्तव्यं । सुगमनण्णं । * एवमणंतराणंतरेण विसेसहीणं सव्वत्थ | २२४. एवमणंतराणंतरादो विसेसहीणं काढूण उवरिमवग्गणासु वि सव्वत्थ एसा सेढि - परूवणा दव्वात्ति वृत्तं होदि । एसा च सेढिपरूवणा सन्चासि संगह किट्टीणं सत्याणे परत्यागे च जोजवा, लोभजहण्ण किट्टिमादि काढूण जाव कोधुक्कसवग्गणा त्ति । परत्याणे वि अनंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । एवमणंतरावणिधाए किट्टीवग्गणासु पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं कावूण संपहि तत्थेव परंपरोवणिधापरूवणटुं चउत्थभासगाहाए अवयारं कुणमाणो उवरिमं पबंधमाह - * एत्तो चउत्थी भासगाहा । ६ २२५. सुगमं । § २२२. इस सूत्र में 'जधन्य वर्गणा' ऐसा कहनेपर अपने सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे युक्त जघन्य कृष्टि ग्रहण करनी चाहिए। इसका प्रदेशपुंज उपरिम समस्त कृष्टियोंके प्रदेशपुंजकी अपेक्षा बहुत होता है यह उक्त कथनका ताल है । * उससे दूसरी वर्गणा में प्रदेशपुंज अनन्तवें भागरूप एक वर्गणाविशेषसे होन है । $ २२३. यहाँ पर भी दूसरी कृष्टि हो सदृश धनवाले अनन्त परमाणुओंसे युक्त दूसरी वर्गणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। 'अनंतभागेण' ऐसा कहनेपर पिछली वर्गणासे अगली वर्गणा में विशेषरूप होनका जितना प्रमाण हो उतना ग्रहण करना चाहिए । शेष कथन सुगम है । * इस प्रकार अनन्तर - अनन्तर रूपसे सब वर्गणाओंमें विशेष हीन प्रदेशपुंज जानना चाहिए । ६ २२४. इस प्रकार अनन्तर- अनन्तररूरसे विशेष होन करके उपरिम वर्गणा में भी सर्वत्र यह श्रेणिप्ररूपणा जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसी प्रकार इस श्रेणिप्ररूपणा की सभी संग्रह कृष्टियों की अपेक्षा स्वस्थान और परस्थान में योजना कर लेनी चाहिए, क्योंकि लोभसंज्वलनको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट वर्गणा के प्राप्त होने तक परस्थानमें भी अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार असम्भव है। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा कृष्टि वर्गणात्रोंमें प्रदेशपुंजको श्रेणिप्ररूपणा करके अब उन्हीं वर्गणाओं में परम्परोपनिधाको प्ररूपणा करने के लिए चौथी भाष्यगाथाका अवतार करते हुए आगे के प्रबन्धको कहते हैं * अब आगे चौथी भाष्यगाथा का कथन करते हैं । $ २२५. यह सूत्र सुगम है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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