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________________ ८६ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे (१२०) कोधादिवग्गणादो सुद्धं कोधस्स उत्तरपदं तु । सो अनंतभागी नियमा तिस्से पदेसग्गे ॥ १७३॥ § २२६. एदस्स गाहासुत्तस्तत्यो वुच्चदे । तं जहा – कोहस्स आदिवग्गणा कोहादिवग्गणा । कारपढमसंगह किट्टीए जहणकिट्टि त्ति वृत्त होदि । तत्तो कोहादिवरगणादो सुद्धं सोहिद arrai | किमेत्य सोहेयव्वमिदि चे ? वुच्चदे - 'कोधस्स उत्तरपदं तु' कोधस्सेव चरिमकिट्टीए पदेसग्गमेत्थ सोहेयध्वमिदि वृत्तं होदि । एवं सोहिस्सेसो अनंतभागो तिस्से जहण्णfare पदेसग्गस्स सुद्धसेसो णियमा अनंतभागे चेव होदि, रूवूण किट्टीसलागमेत्ताणं चेव वग्गणविसेसाणमेत्य सुद्ध सेसाणमुवलंभावो । तदो परंपरोदणिधाए वि जोइज्जमाणे कोहादि • वग्गणाए पदेसग्गं कोधचरिमवग्गणापदेसग्गादो अनंतभागब्भहियमेव जहण किट्टी पदे सग्गादो वि उक्कल्स किट्टोपदेसग्गमणंतभागहाणं चेत्र दट्टव्यमिदि एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । (१२०) क्रोधसंज्वलनका आदि वर्गणा में से क्रोधसंज्वलनके उत्तरपद अर्थात् अन्तिम वर्गणाको घटावे । इस प्रकार घटानेपर जो अनन्तवां भाग शेष रहता है उतना उस आदि वर्गणा में शुद्ध शेषका प्रमाण होता है ॥ १७३ ॥ $ २२६. अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं । वह जैसे - क्रोध की आदि वर्गणा क्रोधादि वर्गणा है । कृष्टिकारकके प्रथम संग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्य कृष्टि यह उक्त पदका अर्थ है । उस क्रोधसम्बन्धी आदि वर्गगामेंसे शुद्ध अर्थात् शोधित करना चाहिए । शंका- इसमें से किसे शाधित करना चाहिए ? समाधान - कहते हैं 'कोधस्स उत्तरपदं तु' क्रोधकी ही अन्तिम कृष्टिके प्रदेशपुंजको इसमें से अर्थात् आदि वर्गणामेंसे शोधित करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार शोधित करनेके बाद जो अनन्तवां भाग शेष बचता है वह उस जघन्य कृष्टिके प्रदेशपुंजसम्बन्धी शुद्ध शेष नियमसे अनन्तवें भाग में अर्थात् अनन्तवें भागप्रमाण ही होता है, क्योकि एक कम कृष्टिशलाका प्रमाण ही वर्गणा विशेषरूप शुद्ध शेष इस आदि वर्गणा में पाये जाते हैं । इसलिए परम्परोपनिधाको अपेक्षासे भी देखनेपर क्रोधकी आदि वर्गणाका प्रदेशपुंज क्रोधकी अन्तिम वगंणाके प्रदेशपुंज से अनन्तवें भागमात्र ही अधिक जानना चाहिए और क्रोध की जघन्य कृष्टिके प्रदेशपुंज से भी उत्कृष्ट कृष्टिका प्रदेशपुंज अनन्तवें भागप्रमाण हो होन जानना चाहिए यह यहाँपर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । विशेषार्थ - पहले अनन्तरापनिधाको अपेक्षा पूर्वकी वर्गणासे उसके आगेकी वर्गणा में कितना प्रदेशपुंज हीन होता है इसका कथन करते हुए यह स्पष्ट कर आये है कि पहलेकी वर्गणासे अगली वर्गणा में अनन्तवें भागरूप एक विशेषप्रमाण प्रदेशपुंज हान हुआ है । इसी प्रकार आगे सर्वत्र - जानना चाहिए । अब यहाँपर परम्परोपनिधासे विचार करनपर क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टिकी आदि वर्गणा मेसे अन्तिम वर्गणाके घटानेपर कितना शेष बचता है इसे स्पष्ट करते हुए उसे अनन्त भागप्रमाण ही शेष रहता है यह सूचित किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि परम्परोपनिधाकी अपेक्षा भी क्रोधसंज्वलनकी जघन्यकृष्टिके प्रदेशपुंजसे उसीकी उत्कृष्ट कृष्टिका प्रदेशपुंज अनन्तवें भागप्रमाण ही होन होता है । इसीको इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि क्रोधसंज्वलनसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टिको उत्कृष्ट कृष्टिके प्रदेशपुंजसे उसीकी जघन्य कृष्टिका प्रदेश पुंज अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है । १. वा. प्रतो कारण -इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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