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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वि कायम्वो, विसेसाभावादो त्ति भणिदं होदि। एवमेदेण विहाणेण कोहतदियकिट्रि वेदेमाणस्स पढमदिदीए कमेण परिहीयमाणाए जाधे आवलिय-पडिआवलियाओ सेसाओ ताधे आगालपडिगालबोच्छेद कादूण तदो पुणो वि समयूणावलियं गालिय समयाहियावलियमेतपढमट्टिर्षि घरेदूणावट्टिदस्स तम्मि समये कोधवेदगद्धा समप्पदि ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ
* तदिकिट्टि वेदेमाणस्स जा पढमट्ठिदी तिस्से पढमट्ठिदीए आवलियाए समयाहियाए सेसाए चरिमसमयकोधवेदगो ।
६७०९. गयत्थमेदं सुत्तं। * जहण्णगो ठिदिउदीरगो।
$ ७१०. ताधे कोहसंजलणस्स जहण्णढिदिउदीरगो च होदि, किं कारणं ? एविकस्से चेव दिदीए तत्थुदीरणदसणादो। संपहि एत्थेव संधिविसये सब कम्मा टिदिबंध-टिदिसंतकम्मपमाणावहारण?मुत्तरसुत्तकलावमाह--
* ताधे द्विदिबंधो संजलणाणं दोमासा पडिवुण्णा ।
६७११. पुवुत्तसंधिविसटिदिबंधादो अंतोमुहत्तणवीसदिवसमेतदिदिबंधपरिहाणीए कमेण जादाए संपुण्णबेमासमेतट्ठिदिधसिद्धीए णिव्विसंवादमेत्थ सगुवलंभादो। वही पूरी विधि यहाँपर भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस विधिसे क्रोधको तोसरो संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले झपक जीवके प्रथम स्थितिके क्रमसे हीन होनेपर जिस समय आवलि और प्रत्यावलि शेष रह जाती है उस समय आगाल और प्रत्यागालको व्युच्छित्ति करके तदनन्तर फिर भी एक समय कम एक आवलिप्रमाण कालको गलाकर एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिको रखकर अवस्थित हुए क्षपक जीवके उस समय क्रोधका वेदककाल समाप्त होता है ऐसा कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
तीसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवको जो प्रथम स्थिति है उस प्रथम स्थितिके एक समय अधिक आवलिप्रमाण शेष रहनेपर वह क्षपक जीव अन्तिम समयवर्ती क्रोध संज्वलनका वेदक होता है।
६७.९. यह सूत्र गतार्थ है। * तथा उसी समय जघन्य स्थितिका उदीरक होता है।
६७१०. उस समय क्रोध संज्वलन की जघन्य स्थितिका उदोरक होता है, क्योंकि वहाँपर एक ही स्थितिकी उदारणा देखी जाती है। अब यहीं सन्धिके विषयमें सभी कर्मोंका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म के प्रमाणका अवधारण करने के लिए आगेके सूत्रसमूहको कहते हैं
के उस समय संज्वलनोंका स्थितिबन्य पूरा दो माहप्रमाण होता है।
६७११. पूर्वोक्त सन्धिविषयक स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्त कम बोस दिवसप्रमाण स्थितिबन्धको क्रमसे हानि होनेपर सम्पूर्ण दो माहप्रमाण स्थितिबन्धको सिद्धि विसंवादरहित होकर यहाँपर उपलब्ध हो जाती है।