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________________ खवगसेढोए कोषतदियकिट्टी विसयकपरूवणा २८१ ९७०६. सुगममेदं सुत्तं । णवरि एदम्मि समये विदियसंगहकिट्टीए दुसमपूणदो आवलियत्वक बंधु च्छिाव लियवज्जं सव्वमेव पदेसग्गं तदियसंग हकिट्टी सरूवेण परिणमिय सगसरूवेण टुमिदि वटुव्वं, तदियसंगहकिट्टी च सगपुविल्लायामादो पण्णा रसगुणमेत्तायामा विदियसंगह किट्टीदव्यपदिच्छण्ण माहप्पेण संजादा त्ति दट्टव्या । एवं च कोहतदियसंगहकिट्टी वेदगभावेण परिणवस्स पढमसमये तिस्से तदियसंगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा वेदिज्जंति, तिस्से चेव असंखेज्जा भागा बति त्ति इममत्यविसेसं फुडीकरेमाणो सुत्तनिद्देसमुत्तरं कुणइ * ताधे कोहस्स तदियसंगह किट्टीए अंतरकिट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । * तासि चेव असंखेज्जा भागा बज्नंति । ७०७. सुगममेदं सुत्तद्दयं । णवरि उदिष्णाहितो विसेसहोणाओ बज्झमाणियाओ होंतित्ति एसो विसेसणिद्देसो पुग्वृत्तबंधोदय णिव्वग्गणापरूवणादो अणुगंतव्वो; सव्वासि चेव वेदिज्जमाणकिट्टीणं साहारणभावेण तिस्से पयट्टत्तादो । * जो विदियकिट्टिं वेदयमाणस्स विधी सो चेव विधी तदियकिट्टि वेदयमाणस्स वि काव्वो । ६७०८. विदियसंगहकिट्ट वेदयमाणस्स जो विधी पुव्वं परुविदो सो चेव निरवसेसमेत्थ ६ ७०६. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि इस समय दूसरी संग्रहकृष्टिके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध उच्छिष्टावलिको छोड़कर सम्पूर्ण ही प्रदेशपुंजको तीसरी संग्रहकृष्टिरूपसे परिणमाकर अपने रूपसे नष्ट कर देता है ऐसा जानना चाहिए तथा तीसरी संग्रहकृष्टि अपने पहिले के आयामसे पन्द्रहगुणो आयामवाली दूसरी संग्रहकृष्टिके प्राप्त हुए माहात्म्यवश हो जाती है ऐसा जानना चाहिए, इस प्रकार क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिके वेदकभावसे परिणत हुए क्षपक जीवके प्रथम समय में उस तीसरी संग्रहकृष्टिका असंख्यात बहुभाग प्रदेशपुंज वेदा जाता है और उसीका असंख्यात बहुभाग प्रदेशपुंज बँधता है इस प्रकार इस अर्थविशेषको स्पष्ट करते हुए आगे के सूत्रका निर्देश करते हैं * उस समय क्रोधको तीसरी संग्रहकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग उदीर्ण हो जाता है । * तथा उन्हींका असंख्यात बहुभाग बांधता है । $ ७०७. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इतनी विशेषता है कि उदीर्ण हुए प्रदेशपुंज से बँधनेवाले प्रदेशपुंज विशेष हीन होते हैं। यहाँ 'विशेष' का निर्देश पूर्वोक बन्ध और उदय निर्वर्गेणाकी प्ररूपणासे जान लेना चाहिए, क्योंकि सभी वेदी जानेवाली कृष्टियोंके साधारणरूपसे उसकी प्रवृत्ति होती है । दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवालेकी जो विधि है वही विधि तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवालेकी भी करनी चाहिए । ६७०८. दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाले क्षपक जीवके जो विधि पहिले कह आये हैं। ३६
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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