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________________ यघवलासहिदे कसायपाहुडे * तिण्डं घादिकम्माणं द्विदिबंधो वासपुधत्तं । ६७०१. पढमसंगह किट्टी वेदगस्स चरिमसमये दसवस्सस हस्तमेत्तो होंतो तिरहं धाविकम्माणं द्विदिबंध तत्तो कमेण परिहाइदूण एहिं तिन्हं वस्साणमुवरि जिणविट्ठभावेण पयट्टवि त्ति वृत्तं होइ । * सेसाणं कम्माणं ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । २८० १७०२ सुगममेदं सुतं । * संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्मं पंच वस्साणि चत्तारि मासा अंतोमुहुत्तणा । ६ ७०३. एत्थ पुग्विल्लसंधिविसयट्टिदिसंतकम्मादो अट्ठमासाहियछवस्सपमाणादो ठिदिसंतपरिहाणीसु ससत्तिभागेगवत्समेत्ता तेरासियक्रमेण साहेयव्वा । * तिन्हं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ६ ७०४. सुगमं । * णामागोदवेदणीयाणं ठिदिसंतकम्ममसंखेजाणि वस्साणि । ७०५. सुगममेदं पि सुत्तं । एवं कोहकिट्टोवेदगद्धाए विदिद्यतिभागे विविध संगहकिट्टीdaगत्तमणुभूय तदद्धा परिसमत्ताए तदो से काले तदियसंगहकिट्टी वेदग भावेण परिणममाणो तिस्से पदेसगं बिदियट्ठिदीदो ओकड्डियूण पढमट्ठिदिमुदया विगुणसेढोए सगवेदगद्धावो आवलियन्भहियं कावूण णिसिंचदित्ति पटुप्पाएमाणो इदमाह * तदो से काले कोहस्स तदियकिट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । * तीन घातिकमका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व प्रमाण होता है । $ ७०१. प्रथम संग्रह कृष्टि वेदकके अन्तिम समय में दस हजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता हुआ इस समय तीन घातिकमौका आगे जैसा जिनदेवने देखा है उसके अनुसार प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। $ ७०२. यह सूत्र सुगम है । * संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म पाँच वर्ष और अन्तर्मुहूतं कम चार माहप्रमाण होता है। $ ७४३. यहां पर पहले के सन्धिविषयक आठ माह अधिक छह वर्षप्रमाण स्थितिसत्कमंसे स्थितिसत्कर्म की हानि तीन भाग अधिक एक वर्षप्रमाण त्रैराशिक विधिसे साध ले आनी चाहिए । * तीन घातिकमा स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण है । $ ७०४. यह सूत्र सुगम है । * नाम गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण है । § ७०५. यह सूत्र भी सुगम है। इस प्रकार क्रोध कृष्टि वेदक कालके दूसरे त्रिभागमें दूसरी संग्रह कृष्टिकी वेदकताका अनुभव करके उसके काल के समाप्त हो जानेपर उसके बाद अनन्तर समय में तोसरी संग्रहकृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन करनेवाला क्षपक जीव उसके प्रदेशपुंजको दूसरी स्थिति में से अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको उदयादि गुणश्रेणोरूपसे अपने वेदक कालसे एक आवलि अधिक करके सिंचन करता है इस बातका कथन करते हुए इस सूत्र को कहते हैं उसके बाद अनन्तर समयमें क्रोधको तीसरो कृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करता है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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