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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे संगहकिट्टीओ भवंति, तत्थ किट्रीकरणद्धादो पुव्वमेव फहयसरूवेण विणस्संतस्स कोहसंजलणस्स तिहं संगहकिट्टीणं संभवाणुवलंभादो। मायोदएण चडिवस्स पुण छच्चेव संगहकिट्टीओ होति, कोह-माणसंजलणाणं तत्थ फद्दयसरूवेण पुव्वमेव खविज्जमाणाणं किट्टीकरणासंभवादो। तहा लोभोदएण सेढिमारूढस्स तिणि चेव संगहकिट्टीओ होंति, कोह-माण-मायासंजलणाणं फद्दयसरूवेण विणासिज्जमाणाणं तत्थ किट्टीसंबंधाणवलंभावो । एक्के विकस्से पुण संगहकिट्टीए अवयवकिटीओ अणंताओ होंति ति जाणावणटुं 'अधवा अणंताओं' ति तप्पमाणणिद्देसो कदो। एवमव्वोगाढसरूवेण चउण्हं संजलणाणमेत्तियाओ संगहकिट्टीओ तववयवकिट्टीओ च होति ति पुव्वद्धेणेदेण जाणाविय संपहि चउण्हं संजलणाणं पुष पुध णिरंभणं कादूण तत्थ एक्केक्कस्स कसायस्स केत्तियाओ किट्टीओ होति त्ति मूलगाहाविवियावयवमस्सियूण विहासणटुं गाहापच्छद्धो समोइण्णों ‘एक्केक्कम्हि कसाये तिग तिग' कोहावीणमण्णवरे कसाए णिरुद्धे पादेक्कं तिण्णि तिण्णि संगहकिट्टीओ होति । तदवयवकिट्टीओ पुण अणंताओ होति त्ति एसो एत्थ. सुत्तत्यसमुच्चओ। संपहि एवंविहमे विस्से गाहाए अत्यविहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो विहासागंथमुत्तरं भणइ * विहासा। ६१३३. सुगमं । * जइ कोहेण उवट्ठायदि तदो बारस संगहकिट्टीओ होति । हैं। जो मान संज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसके नौ संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि इसके कृष्टिकरण कालके पूर्व ही स्पर्धकरूपसे विनाशको प्राप्त हुए क्रोध संज्वलनको तीन संग्रह कृष्टियां वहाँ सम्भव नहीं हैं । परन्तु जो मायाके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसके छह ही संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि इसके (कृष्टिकरण कालके) पूर्व ही स्पर्धकरूपसे क्षयको प्राप्त हुए क्रोध और मान संज्वलनोंके कृष्टिकरण असम्भव है। तथा लोभके उदयसे जो श्रेणिपर आरोहण करता है उसके तीन ही संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि इसके क्रोध, मान और माया संज्वलनका स्पर्धकरूपसे विनाश हो जाता है, इसलिए वहां उक्त कषायसम्बन्धी कृष्टियां नहीं पायी जाती हैं । परन्तु एक-एक संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियां अनन्त होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'अधवा अणंताओ' इस पद द्वारा उनके प्रमाणका निर्देश किया है। इस प्रकार अवोगाढ़स्वरूपसे अर्थात् विभक्त किये बिना चारों संज्वलनोंकी इतनो संग्रह कृष्टियां और उनकी इतनी अवयव कृष्टियां होती हैं इस प्रकार इस गाथासत्रके पूर्वार्ध द्वारा ज्ञान कराकर अब चारों संज्वलनों को पृथक्-पृथक् विवक्षित कर उनमें से एक-एक कषायकी कितनो कृष्टियां होती हैं इस प्रकार मूल गाथाके दूसरे अवयव अर्थात् उत्तरार्धका आलम्बन लेकर व्याख्या करने के लिए गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है-'एक्केक्कम्हि तिग तिग' अर्थात् क्रोधादि संज्वलनोंमेंसे किसी एक कषायके विवक्षित होनेपर प्रत्येकको तीन-तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं । तथा उनकी अवयव कृष्टियो अनन्त होती हैं यह यहां इस गाथासूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब इस प्रकार इस गाथासूत्रके अर्थका विशेष व्याख्यान करते हुए चूणिसूत्रकार आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब उक्त गाथा सूत्रको विभाषा करते हैं। ६१३३. यह सूत्र सुगम है। * यदि क्रोध कषायके उदयसे आपकश्रेणिपर उपस्थित होता है तो उसके बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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