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________________ खवगसेढीए पढममूळगाहाए पढमभासगाहा वुत्तं होह। * तिणि मासगाहाओ । __१३०. एविस्से पढममूलगाहाए अत्यविहासण? मेत्य तिण्णि भासगाहाओ होंति, तासि. मिदाणिमवयारं कस्सामो त्ति वुत्तं होइ, भासगाहाहि विणा मूलगाहाणमत्यविहासणोवायाभावादो । तत्थ मूलगाहा णाम पुच्छादुवारेण सूचिदासेसपयदत्थपरूवणा संगहरुइसत्ताणुग्गहकारिणी । तिस्से सूचिदत्थविवरणे पडिबद्धाओ वित्थररुइसत्ताणग्गहकारिणीमो भासगाहाओ त्ति दटुवाओ। एवमेत्थ तिण्हं भासगाहाणमत्थितं परूविय संपहि जहाकममेव तासि विवरणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो तत्थ पढमभासगाहाए पुध्वमवयारं करेदि-- * पढममासगाहा वेसु अत्थेसु णिबद्धा । तिस्से समुक्त्तिणा। ६१३१. तिहं भासगाहाणं माझे पढमा भासगाहा मूलगाहाए पुग्वद्धपडिबद्धेसु वेसु अत्येसु णिबद्धा। तिस्से समुक्कित्तणा एसा बटुव्वा त्ति वुत्तं होदि । (११०) बारस णव छ तिण्णि य किट्टाओ होति अध व अणंताओ एकेक म्हि कसाये तिग तिग अधवा अणंताओ ॥१६३॥ ६१३२. एदिस्से पढमभासगाहाए अत्यविवरणं कस्सामो। तं जहा–'बारस णव छ तिष्णि य' एवं भणिदे संगहकिटीओ पेक्खियूण ताव कोहोदएण चडिदस्स बारस संगहकिट्टीओ भवंति, पुव्वुत्ताणं बारसण्हं पि संगहकिट्टीणं तत्थ संभवोवलंभावो। माणोवएण चडिवस्स णव * इसकी तीन भाष्यगाथाएं हैं। 5१३०. इस प्रथम मूछ गाथाके अर्थको विशेष व्याख्या करने के लिए इस विषय में तीन भाष्यगाथाएं हैं, उनका इस समय अवतार करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि भाष्यगाथाओंके बिना मूल गाथाओंको विशेष व्याख्या करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है। जिससे संग्रह रुचिवाले जीवोंका उपकार होता है और जिसके पृच्छा द्वारा सूचित हुए समस्त प्रकृत अर्योको प्ररूपणा की जाती है वह मूल गाथा कहलाती है। तथा जो उस मूल गाथा द्वारा सूचित हुए अर्थोके विवरण करने में प्रतिबद्ध हैं और जिनके द्वारा विस्तार रुचिवाले जीवोंका अनुग्रह होता है उन्हें भाष्यगाथाएँ कहते हैं ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार प्रकृतमें तीन भाष्यगाथाओंके अस्तित्वका कथन करके अब क्रमसे हो उनका विवरण करते हुए चूर्णिसूत्रकार उनमें से प्रथम भाष्यगाथाका सर्वप्रथम अवतार करते हैं * प्रथम भाष्यगाथा दो अर्थोंमें निबद्ध है। उसकी समुत्कीर्तना करते हैं। ६१३१. तीन भाष्यगाथाओंमें से प्रथम भाष्यगाथा मूल गाथाके पूर्वाधसम्बन्धी दो अर्थों में निबद्ध है । उसको यह समुत्कीर्तना जाननी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। (११०) क्रोधादि चारों कषायोंकी क्रमसे बारह, नौ, छह ओर तीन कृष्टियाँ होती हैं अथवा अनन्त कृष्टियाँ होती हैं। तथा एक-एक कषायमें तीन-तीन कृष्टियां होती हैं अथवा अनन्त कृष्टियाँ होती हैं ॥१६३॥ ६१३२. अब इस भाष्यगाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं। वह जैसे–'बारस णव छ तिण्णि य' ऐसा कहनेपर संग्रह कृष्टियोंको देखते हुए जो जीव क्रोध संज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है उसके बारह संग्रह कृष्टियां होती हैं, क्योंकि पूर्वोक्त बारह हो संग्रह कृष्टियां वहाँ सम्भव
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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