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________________ खवगसेढीए अण्णा परूवणा २१९ अक्खवगस्स ताव अदीदे काले दोसु वि फासेसु अणिल्लेवणद्विवीणमुदओ होदूण पुणो तासि मज्झे एगा पिल्लेवटिदी होदूण उदयं लहदि । एवंविहणिल्लेवाटुंदीणमुदयकालस्स अदीदे काले सव्वत्थ गहिदसलागाओ अणंताओ होदूण उवरिमवियप्पपडिबद्धसलागाहिंतो बहुगोओ जादाओ। एवं खवगस्स वि वत्तव्वं । णवरि जाणाजीवावेक्खाए एस कालो घेत्तव्यो। एगजीवावेक्खाए वि एस कालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो होदूण सव्वबहुगो होदि त्ति घेत्तव्वं । * दुसमइओ विसेसहीणो। ६५५५. 'खवगस्स वा अक्खवगस्स वा अणुसमयणिल्लेवणकालो' ति पुश्वसत्तावो अणुवट्टदे। तेणेवमेत्थ सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो-खवगस्स वा अक्खवगस्स वा भवबद्धाणं वा समयपबद्धाणं वा अणुसमयणिल्लेवणकालो दुसमइओ पुवुत्तकालं पेक्खियूण विसेसहीणो होदि त्ति । किं कारणं? दो-दोणिल्लेवणट्टिदोणमंतरिदसरूवेण संजोगो अदोवदुल्लहो होइ तेण पुग्विल्ल. कालादो एसो कालो विसेसहीणो जादो। एत्य विसेसहीणपमाणं हेट्टिमरासिस्सासंखेज्जदिभागो। तस्स पडिभागो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एत्थ वि पुत्वं व खवगस्त अदीदकालविसये णाणाजीवप्पणाए एसो कालो अणंतो घेत्तवो। एगजीवप्पण्णाए आवलियाए असंखेज्जदिभागपमाणो त्ति वत्तव्वं । उवरिमपदेसु वि एसो अत्थो सम्वत्थ जोजेयम्वो। यहापर अनुसमयसम्बन्धी निलेपनकाल ‘एक समयसम्बन्धी बहुत है' ऐसा कहनेपर अक्षपकके तो अतीत कालमें दोनों ही पाश्वभागोंमें अनिर्लेपनरूप स्थितियोंका उदय होकर पुनः उनके मध्य में एक निर्लेपन स्थिति होकर उदयको प्राप्त होती है । इस प्रकार निर्लेपनरूप स्थितियोंके उदयकालकी अतीत कालमें सर्वत्र ग्रहण की गयो शलाकाएं अनन्त होकर उपरिम भेदसे सम्बन्ध रखनेवाली शलाकाओंसे बहुत हो जाती हैं । इस प्रकार क्षपकके भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह काल नाना जीवोंकी अपेक्षा ग्रहण करना चाहिए। एक जीवको अपेक्षा भी यह काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर सबसे अधिक होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। के दो समयवाला अनुसमय निर्लेपनकाल विशेष हीन है। ६५५५. क्षपकके अथवा अक्षपकके समयप्रबद्धोंका अथवा भवबद्धोंका 'अनुसमयवाला निर्लेपनकाल' इसकी पिछले सूत्रसे अनुवृत्ति होती है, इसलिए यहांपर उस पदके साथ सूत्रके अर्थका सम्बन्ध कर लेना चाहिए-क्षपकके अथवा अक्षपकके भवबद्धोंका अथवा समयप्रबद्धोंका अनुसमय निर्लेपनकाल दो समयवाला पूर्वोक्त कालको देखते हुए विशेष हीन होता है। शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि दो-दो निलेपन स्थितियोंका अन्तरितरूपसे संयोग अतीव दुर्लभ है। इसलिए पूर्वके कालसे यह काल विशेष हीन हो जाता है । यहाँपर विशेष हीनका प्रमाण अधस्तन राशिका असंख्यातवा भाग है और उसका प्रतिभाग आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहांपर भी पहलेके समान क्षपकके अतीत कालमें नाना जीवोंको मुख्यतासे यह काल अनन्त ग्रहण करना चाहिए। तथा एक जीवको मुख्यतासे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है ऐसा कहना चाहिए। आगेके पदोंमें भी यह सर्वत्र योजित कर लेना चाहिए।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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