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________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ट्ठाणंतरमणंतगुणमिदि ण एत्थ को वि वामोहो कायव्वोत्ति पुश्वुत्तमेवत्थमुवसंहारमुहेण पल्वेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * णाणंतराणि थोवाणि । एकंतरमणंतगुणं । ६५५३. गयत्थमेदं सुत्तं । एवं भवपबद्धसेसयाणं पि पयदजवमज्झपरूवणा गिरवयवमणुगंतव्वा, विसेसाभावादो। एवमेदं परूविय पुणो भवसिद्धियपाओग्गे अभवसिद्धियपाओग्गविसये च साहारणभूदं परूवणंतरमाढवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ- * खवगस्स वा अक्खवगस्स या समयपबद्धाणं वा भवबद्धाणं वा अणुसमयजिल्लेवणकालो एगसमइओ बहुगो। ६५५४. अणुषमयणिल्लेवणकालो णाम समयपबद्धाणं वा भवपबद्धाणं वा णिरंतरणिल्लेवणकालो। सो वुण जहणेण एगसमयमेत्तो होदि, दोसु वि फासेसु पिल्लेवणट्ठिदीणमुदयो होदूण मज्झे एगसमयं चेव भवसमय-पबद्धणिल्लेवणट्रिदिवेदगभावेण परिणममाणस्स तदुवलंभादो। एवं दुसमइय. तिसमइयादिकमेण अणुसमयणिल्लेवणकालोअणुगंतव्वो जावुक्कस्सेणावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो अणुसमयणिल्लेवणकालो समुवलद्धो त्ति, खवगसेढीए संसारावत्याए वा एत्तो अहिययराणुसमय. जिल्लेवणकालस्साणुवलंभादो। एवमेदे अणुसमयणिल्लेवणकालवियप्पे जहण्णकालप्पहुडि जावुक्कस्सकालो त्ति समयुत्तरकमेण ठवेदूण एत्थ अणुसमयणिल्लेवण कालो 'एगसममो बहुओ त्ति' वुत्ते यतः इस प्रकार ये पल्योपमके अर्धच्छेदोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिए इनसे एक गुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है इस प्रकार इस विषयमें किसी प्रकारका भी व्यामोह नहीं करना चाहिए । अब पूर्वोक्त अर्थको ही उपसंहार द्वारा प्ररूपणा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * 'गाणंतराणि' अर्थात् नाना गुणहानिस्थानान्तर सबसे थोड़े हैं। तथा उनसे 'एकांतर' अर्थात् एक गुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है। ६५५३. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार भवबद्धशेषोंकी भी प्रकृत यवमध्यप्ररूपणा समग्ररूपसे करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इतना प्ररूपण करके पुनः भवसिद्धिक जीवोंके योग्य और अभवसिद्धिक जीवोंके योग्य विषयमें साधनभूत दूसरी प्ररूपणाको आरम्भ करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * क्षपकके अथवा अक्षपकके समयप्रबद्धोंका अथवा भवबद्धोंका एक समयसम्बन्धी अनुसमय निर्लेपनकाल बहुत है। ६५१४. समयप्रबद्धोंका अथवा भवबद्धोंका जो निरन्तर होनेवाला निर्लेपनकाल है वह जघन्यसे एक समयप्रमाण होता है, क्योंकि दोनों ही पार्श्वभागोंमें निलेपनरूप स्थितियोंका उदय होकर मध्य में एक समय तक ही भवबद्ध और समयप्रबद्धनिर्लेपन स्थितिरूपसे परिणमन करनेवालेका वह काल पाया जाता है। इसी प्रकार दो समयवाले और तीन समयवालेके क्रमसे प्रत्येक समयमें निर्लेपनकाल तबतक जानना चाहिए जब जाकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिसमय निर्लेपनकाल उपलब्ध होता है इस प्रकार क्षपकश्रेणिमें अथवा संसार अवस्थामें इससे अधिकतर प्रतिसमय निर्लेपनकाल उपलब्ध नहीं होता। इस प्रकार इन निर्लेपनकालके भेदोंको जघन्य कालसे लेकर उत्कृष्ट कालके प्राप्त होने तक एक-एक अधिक समय के क्रमसे स्थापित करके
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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