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________________ खवगसेढोए अण्णा परूवणा २१७ * णाणंतरं थोवं। ६५५०. जवमझादो हेटिमोवरिमसयलणाणागुणहाणिसलागाओ मिलिदूण थोवाओ ति वुत्तं होइ। तासि च पमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ति उवरि सुत्तयारो सयमेव भणिहिदि । तदो सिद्धमेवासिं गाणंतरसलागाणं थोवत्तमिदि । * एगंतरमणंतगुणं । ६५५१. एयगुणहाणिटाणंतरमणतगुणमिदि वृत्तं होइ। पुवुत्तणाणागुणहाणिसलागाहिं सयलट्ठाणद्धाणे ओट्टिदे अणंतसंखावच्छिण्णपमाणमेयगुणहाणिअद्धाणमुप्पज्जदि तम्हा तत्तो एवस्साणंतगुणत्तमसंविद्धं सिद्धं । संपहि एत्थ णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणविसये पिण्णयुप्पायण?मुवरिमसुत्तमाह * अंतराणि अंतरविदाए पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिमागो। ५५२. अंतराणि णाणागुणहाणिणाणंतराणि ति वुत्तं होइ । अंतरटुदाए एगेगगुणहाणि. णाणंतरणिमित्तं ठविदसलागाओ ति तेसि चेव सरूवणि सो कदो बदुव्वो। पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जविभागो' एदेण सुत्तावयवेण तेसि पमाणपरिच्छेदो कदो दटुव्यो, पलिवोवमद्धच्छेदणयसलागाणं पि असंखेज्जविभागमेतण मुत्तकंठमेव तासि पमाणावहारणादो तासि पमाणावच्छेददंस जादो । जदो एवमेदामो पलिदोवमच्छेदणाणं पि असंखेज्जदिभागो। तदो एदाहितो एयगुगहाणि. ॐ यहाँ इन स्थानोंको नाना गुणहानिशलाकाएँ सबसे थोड़ी होती हैं। ६५५०. नानान्तर अर्थात् यवमध्यसे अघस्तन और उपरिम स्थानोंकी समस्त नाना गुणहानिशलाकाएं मिलकर थोड़ी होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और वे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं यह बात आगे सूत्रकार स्वयं ही कहेंगे, इसलिए इन नानान्तर शलाकाओंका स्तोकपना सिद्ध हो जाता है। * उनसे एकान्तर अर्थात् एक गुणहानिस्थान अनन्तगुणा है। ६५५१. एक गुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पूर्वोक्त नाना गुणहानिशलाकाओंसे समस्त स्थानोंके आयामके भाजित करनेपर अनन्त संख्यासे युक्त प्रमाणवाला एक गुणहानिस्थान उत्पन्न होता है, इसलिए यहाँपर नाना गुणहानि शलाकाओंके प्रमाणके विषय में निर्णय उत्पन्न करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं * 'अन्तर' अर्थात् एक-एक गुणहानिस्थानान्तरके निमित्त स्थापित शलाकारूप 'अन्तराणि' अर्थात् नानागुणहानिस्थानान्तर पल्योपमसम्बन्धी अधच्छेदोंके भी असंख्यातवें भागप्रमाण है। ६५५२. 'अंतराणि' पदसे नाना गुणहानिस्थानान्तर लिये गये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'अंतरट्टिदाए' पदसे एक-एक गुणहानिस्थानान्तरके निमित्त स्थापित की गयो शलाकाएं की गयी हैं। इस प्रकार उक्त कथन द्वारा उन्हींके स्वरूपका निर्देश किया गया जानना चाहिए। 'पलिदोवमच्छेदणाणं असंखेज्जदिभागो' इस सूत्रवचन द्वारा उन्होंके प्रमाणका निर्णय किया गया जानना चाहिए, क्योंकि पल्योपमके अर्धच्छेदशलाकाओंके भी असंख्यातवें भाग द्वारा मुक्तकण्ठरुपसे उन्हींके प्रमाणका अवधारण किया गया है अर्थात् उन्हींके प्रमाण निर्णय देखा जाता है। २८
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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