SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वडिट्ठाणंतरं तम्हि उद्देसे समुप्पज्जदि ति भणिदं होदि । पुणो वि तत्तो हेटिमद्धाणमैत्तमुवरि गंतूण विदियं दुगुणवडिट्ठाणमुप्पज्जदि । एवमेदेण कमेण असंखेज्जे तु दुगुणवड्डिठ्ठाणेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपमाणेस गदेस तदित्थदगणवडीए चरिमवियप्पे अगतेहि परमाणहि अभवसिद्धि एहितो अणंतगुणसिद्धाणंतभागमेत्तेहि जिल्लेविदाणं समयपबद्धाणं सलागाओ अदीदकालविसयाओ अणंताओ घेतूण तत्थ जवमझट्टाणमुप्पज्जदि ति. इममत्यविसेसं पदुप्पाएमाणों सुत्तमुत्तरं भणइ * ठाणाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागपडिमागे जवमझं । 5 ५४९. एगपरमाणुमादि कादूण जावुक्स्सेणाणता परमाणु त्ति एगादिएगुत्तरकमेण वडिदाणि अणंताणि टाणाणि एस्थत्थि, एगसमयपबद्ध उक्कस्ससेसमेत्ताणं चेव द्वाणाणमेत्य संभवोवलंभादो। उक्कस्ससेसयं पुण एगसमयपबद्धस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं होइ। पुणो एत्तियमेत्ताणं समयपबद्धसेसटाणाणमसंखेज्जदिभागे जवमज्झटाणमुप्पज्जदि, तप्पाओग्गपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण सयलट्ठाणद्धाणे ओट्टिदे तत्थ भागलद्धमत्ताणं ठाणाणं चरिमवियप्पे जवमज्झसमुप्पत्तिदसणादो। पुणो जवमझादो उवरि विसेसहाणीए अणंताणि टाणाणि गंतूण दुगुणहाणी होइ । एवं णेदवं जाव हेट्ठिमद्धाणादो असंखेज्जगुणमद्धाणमुवरि गंतूण चरिमवियप्पो उक्कस्ससमयपबद्धसेसपडिबद्धो समुप्पण्णो ति। एवेण जवमज्झादो हेटिमद्धाणं सयलढाणाणमसंखेज्जदिभागो उपरिमद्धाणमसंखेज्जा भागा त्ति जाणाविदं होदि । देखते हुए उस स्थानमें द्विगुण वृद्धिस्थानान्तर उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । फिर भी उससे अधस्तन स्थानोंका जितना प्रमाण है उतने स्थान ऊपर जाकर दूसरा द्विगुणवृद्धिप्रमाणस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस क्रमसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यात द्विगुणवृद्धिस्थानोंके जानेपर वहांके द्विगुणवृद्धिस्थानके अन्तिम भेदमें अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त परमाणुओंको लेकर निर्लेपित हुए समयप्रबद्धोंकी अतीत कालविषयक अनन्त शलाकाओंको ग्रहण कर वहां यवमध्यस्थान उत्पन्न होता है इस प्रकार इस अर्थविशेषका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * स्थानोंके असंख्यातवें भागके प्रतिभागमें यवमध्य होता है। ६.५४९. एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणुओंके प्राप्त होने तक एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए अनन्त स्थान यहां होते हैं, क्योंकि एक समयप्रबद्धके उत्कृष्ट शेषप्रमाण ही स्थान यहाँ सम्भवरूपसे उपलब्ध होते हैं। परन्तु उत्कृष्ट शेष एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है । पुनः इतने समयप्रबद्धशेष स्थानोंके असंख्यात भागमें यवमध्यस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागसे समस्त स्थानोंके आयामको भाजित करनेपर वहां लब्ध एक भागप्रमाण स्थानोंके अन्तिम भेदमें यवमध्य उत्पन्न होता है । पुनः यवमध्यसे ऊपर ( आगे ) विशेष हानिवश अनन्त स्थान जाकर द्विगुणहानि होती है। इस प्रकार अधस्तन आयामसे असंख्यातगुणे आयाम ऊपर ( आगे) जाकर उत्कृष्ट समयप्रबशेषसम्बन्धी अन्तिम भेद उत्पन्न होता है । इस प्रकार इस कारणसे यवमध्यसे अधस्तन (पूर्वका ) आयाम समस्त स्थानोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और उपरिम ( आगेका) आयाम असंख्यात बहुभागप्रमाण होता है यह ज्ञान कराया गया है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy