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________________ २५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * बज्झमाणियाणं जं पढमं किट्टीअंतरं तत्थ णस्थि । ६२९. बज्झमाणसंगहकिट्टीणं हेटिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणं किट्टीणमंतरेसु ताव बंधेण अपुवकिट्टी ण णिव्वत्तिज्जदि, तदायारेण बंधपवुत्तीए असंभवादो। तदो बज्झमाणमजिसम. किट्टीसरूवेण तदंतरेसु च णवकबंधपदेसग्गेण किट्टीओ णिव्वत्तिज्जति । तत्य वि बज्झमाणियाणं जं पढमं किट्टीअंतरं तत्थ गस्थि अपुवाओ किट्टीओ। कुदो ? साहावियादो। * एवमसंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि अधिच्छिदूण । ६ ६३०. एवमेदेण कमेण असंखेज्जाणि किट्टीअंतराणि समुल्लंघियूण तदित्यकिट्टीअंतरे अपुवकिट्टीए संभवो त्ति भणिदं होदि । संपहि एक्स्स चेव अद्धाणस्स फुडीकरण?मिदमाह * किट्टीअंतराणि अंतरद्वदाए असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । ६६३१. एदाणि किट्टीअंतराणि बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणापुवकिट्टीए अंतरभावेण पयट्टमाणाणि केत्तियमेत्ताणि त्ति पुच्छिदे असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलाणि ति तेसि पमाणणिद्देसो कदो। बज्झमाणजहण्णकिट्टिप्पहुडि जाव असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तकिट्टीओ गच्छंति ताव' णवकबंधाकट्टोपदेसग्गं पुवकिट्टीसु चेव सरिसपणियसरूवेण परिणमिय पुणो तवणंतरोवरिम * बध्यमान कृष्टियोंसम्बन्धी जो प्रथम अवयव कृष्टि-अन्तर है उसमें उन अपूर्व कृष्टियोंकी निष्पत्ति नहीं करता है। 5६२९. नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागप्रमाण बध्यमान संग्रह कृष्टियोंके कृष्टि अन्तरालोंमें तो बन्धरूपसे अपूर्व कृष्टियों को निष्पन्न नहीं करता है, क्योंकि उस रूपसे बन्धकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है। इसलिए बध्यमान मध्यम कृष्टियोंके रूपसे और उनके अन्तरालों में नवकबन्ध प्रदेशपुंजमें से अपूर्व कृष्टियोंको निष्पन्न किया जाता है। उसमें भी बध्यमान कृष्टियोंका जो प्रथम कृष्टि अन्तर है उसमें अपूर्व कृष्टियां नहीं पायी जाती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है। * इस प्रकार असंख्यात कृष्टि अन्तरालोंको उल्लंघन कर ६६३०. इस प्रकार इस क्रमसे असंख्यात कृष्टि अन्तरालोंको उल्लंघन कर वहां प्राप्त होनेवाले कृष्टि-अन्तरालमें अपूर्व कृष्टिकी उत्पत्ति होती है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। अब इसी स्थानको स्पष्ट करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं ___विवक्षित कृष्टि अन्तरालको प्राप्त करनेके लिए जो कृष्टि-अन्तराल होते हैं वे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण होते हैं। ६६३१. बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टि के लिए अन्तररूपसे प्रवृत्त होनेवाले ये कृष्टि-अन्तराल कितने होते हैं ऐसा पूछनेपर वे पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण होते हैं इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया है। बध्यमान जघन्य कृष्टिसे लेकर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण कृष्टियां जबतक व्यतीत होती हैं तब जाकर नवकबन्धरूप कृष्टिका प्रदेशपुंज पूर्व कृष्टियोंमें ही सदृश धनरूपसे परिणमन करके पुनः तदनन्तर उपरिम कृष्टि अन्तरालमें १. ता. आ. प्रत्योः जाव इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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