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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे एसो तदियो वक्खाणपयारो, तिसु वि पयारेसु अवलंबिदेसु विरोहाणुवलंभादो। * कोधस्स चरिमादो किट्टीदो लोभस्स अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए अंतरमणंतगुणं। ६६२. गयत्थमेदं सत्त। एवमेत्तिएण पबंधेण पुव्वपरूविदकिट्टीअप्पाबहुअस्स गुणगार. साहणटुमेदं अप्पाबहुअं पविय संपहि एत्तो पढमसमए णिव्वत्तिज्जमाणियासु किट्टीस दिज्जमाणस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं कुणमाणो सत्तपबंधमुत्तरं भणइ * पढमसमए किट्टीसु पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं वत्तइस्सामो। ६६३. सुगममेदं पइण्णावक्कं । * तं जहा। 5 ६४. सुगमं । * लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं-बहुअं । $ ६५. पढमसमयकिट्टोकारगो पुव्वापुम्वफद्दएहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जदिभागमोकड्डियूण पुणो ओकड्डिदसयलदव्वस्सासंखेज्जदिभागमेत्तं दव्वं किट्टोसु णिविखवदि । एवं च णिक्खिवमाणो लोभस्स जा जहणिया किट्टी तिस्से सरूवेण बहुअं पदेसग्गं णिक्खिवदि, अणंतरपरूविदव्वं कथन करने के लिए आगेके सूत्रका अवतार हुआ है। इस प्रकार यह तीसरा व्याख्यान प्रकार है, क्योंकि तीनों हो प्रकारोंके अवलम्बन करनेपर कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता। विशेषार्थ-यहाँपर 'तदियसंग्रहकिट्टोअंतरं अणंतगुणं' इस सूत्रको रचनाके प्रयोजनरूपमें जिन तीन प्रकारोंको ध्यानमें रखते हुए उससे अगले सूत्रकी रचना को गयो है इस तथ्यको सष्ट किया गया है। शेष कथन स्पष्ट ही है। * क्रोधको अन्तिम कृष्टिसे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है। ६६२. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा पूर्वमें कहे गये कृष्टियोंके अल्पबहुत्वके गुणकारोंकी सिद्धिके लिए इस अल्पबहुत्वका कथन करके अब इसके बाद प्रथम समयमें निष्पन्म हुई कृष्टियोंमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिका कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * अब प्रथम समयमें कृष्टियोंमें प्रवेशपुंजके श्रेणिप्ररूपणको बतलावेंगे। 5 ६३. यह प्रतिज्ञावाक्य सुगम है। * वह जैसे। ६६४. यह सूत्र सुगम है। * लोभको जघन्य कृष्टि में प्रदेशपुंज बहुत है। ६६५. प्रथम समय में कृष्टिकारक जीव पूर्व और अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी प्रदेशपंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके पुनः अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यको कृष्टियोंमें निक्षिप्त करता है और इस प्रकार निक्षेपण करता हुमा लोभकी जो जघन्य कृष्टि है उस रूपसे बहुत प्रदेशपुंजका निक्षेपण करता है, क्योंकि अनन्तर पूर्व प्ररूपित किये गये द्रव्यको
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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