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________________ खवगसेढोए किट्टोसु णिक्खित्तदव्वसेढिपरूवणा २३ किट्टीअद्धाणेण खंडिय तत्थेयखंडदव्वत्तस्स रूवूणकिट्टोअद्धाणमेत्तवग्गणविसेसेहि समहियस्स जहण्णकिट्टीए णिक्खेवदंसणादो। * विदियाए किट्टीए विसेसहीणं । ६६६. केत्तियमेत्तण ? एयवग्गण विसेसमेतणे । एत्तो उवरिमकिट्टीस वि जहाकममणंत. भागेण विसेसहोणमेव पदेसग्यं णिक्खिवदि जाव ओघुक्कस्सियादो कोहकिट्टीदो त्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * एवमणंतरोवणिधाए विसेसहीणमणंतभागेण जाव कोहस्स चरिमकिट्टि ति। ६६७. एवमेदेण विहाणेण अणंतरोवणिधाए उवरि सव्वत्थ एगेगवग्गणविसेसमेत्तं परिहोणं कादूण णेदव्वं जाव सव्वासि संगहकिट्टीणमंतरकिट्टीओ समुल्लंघियूण सव्वुक्कस्सियं कोहचरिमकिट्टि पत्तो ति। कुदो ? एदम्मि अदाणे अणंतराणंतरादो अणंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। कृष्टियोंके अध्वानसे खण्डित करके वहां जो एक खण्डप्रमाण द्रव्य प्राप्त हो उसे एक कम कृष्टियों के स्थानप्रमाण वर्गणा विशेषोंसे अधिक करे, क्योंकि उनने द्रव्यका जघन्य कृष्टिमें निक्षेप देखा जाता है। क उससे दूसरी कृष्टिमें प्रदेशपुंज विशेष हीन है। ६६६. शंका-कितना हीन है ? समाधान-एक वर्गणामें विशेषका जितना प्रमाण है उतना हीन है। इससे आगे उपरिम कृष्टियोंमें भी क्रमसे अनन्तवें भागप्रमाण विशेषसे हीन प्रदेशपुंजको हो तब तक निक्षिप्त करता है जब जाकर ओघ उत्कृष्ट क्रोषकृष्टि प्राप्त होती है इस प्रकार इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * इस प्रकार अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्त भागप्रमाण विशेष होन प्रदेशजका निक्षेप क्रोधको अन्तिम कृष्टि तक होता है। ६६७. इस प्रकार इस विधिसे अनन्तरोपनिधाको अपेक्षा आगे सर्वत्र एक-एक वर्गणाविशेषमात्र होन करते हुए तब तक ले जाना चाहिए जब जाकर सब संग्रह कृष्टियोंको अन्तर कृष्टियोंको उल्लंघन करके सबसे उत्कृष्ट क्रोधको अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है, क्योंकि इस अध्वानमें अनन्तर. अनन्तररूपसे अनन्तभागहानिको छोडकर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। विशेषार्थ-यहाँपर लोभको जघन्य कृष्टिसे लेकर क्रोधको अन्तिम कृष्टि तक जितनी भी अवान्तर कृष्टियां, पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमेंसे द्रव्यका अपकर्षण कर, निवृत्त होती हैं इनमेंसे किस कृष्टिको कितना द्रव्य प्राप्त होता है और वह समस्त द्रव्य अपूर्व और पूर्व स्पर्धकोंके समस्त द्रव्यका कितने भागप्रमाण है यही तथ्य यहां स्पष्ट किया गया है । यथा-पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें जितना द्रव्य होता है उसमें असंख्यातका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसका अपकर्षण करके उसमें भी असंख्यातका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतना द्रव्य सब कृष्टियोंमें निक्षिप्त होता है। तो भी सब कृष्टियोंमें उक्त द्रव्यके निक्षिप्त होनेका क्रम यह है कि सब कृष्टियोंको एक-एक करके जितना द्रव्य प्राप्त होता है उसमेंसे लोभको जघन्य कृष्टिको सबसे अधिक द्रव्य प्राप्त होता है। पुनः उससे आगे लोभकी दूसरी कृष्टिसे लेकर क्रोधको अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक प्रत्येक कृष्टिको उत्तरोत्तर एक-एक विशेष होन द्रव्य प्राप्त होता है। यहाँपर विशेषका प्रमाण सब कृष्टियोंको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके अनन्त भागमात्र है। १. ता-प्रती रूवूणकिट्टीअकरणद्ध-इति पाठः । २. आ-प्रती एयवागणविसेसेण इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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