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________________ (१८) आगे समय प्रबद्ध शेष सम्बन्धी प्ररूपणा करके भवबद्धशेष सम्बन्धी प्ररूपणाको इसी प्रकारकी जानने की सूचना करने के बाद भगवान यतिवर्षभ आचार्यने जो यह सूचना की है कि यद्यपि प्रकृत में यवमध्य करना चाहिये । परन्तु यहाँ छद्मस्थ होनेके कारण उसे लिखनेका स्मरण नहीं रहा। इसलिये टीकाकारका कहना है कि व्याख्यानाचार्यों को उसका व्याख्यान कर लेना चाहिये। आगे टीकाकार इसे स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि सूत्रकार पूर्वापरके परामर्श करने में कुशल होते हैं, इसलिए उनके द्वारा विस्मरण होना तो सम्भव नहीं। फिर भी जो यह लिखा है कि यहाँ हमें लिखनेका स्मरण नहीं रहा, इसलिए प्रकृत में यवमध्य कर लेना चाहिए सो उनके ऐसा लिखने का यह अभिप्राय रहा है कि प्रकृतमें यवमध्य सुबोध है, वह विस्मरण स्वरूप नहीं हैं। फिर भी उसका विस्मरण हो गया ऐसा मानकर शिष्यों को प्रकृत अर्थक समर्पण करने में कुशल आचार्यपर उक्त दोष लागू नहीं होता, क्योंकि सूत्रकारोंके कथन करने की शैली विचित्र अर्थात अनेक प्रकारकी होती है। आगे उसे ही यहाँ दो उपदेशोंका अवलम्बन लेकर स्पष्ट किया गया है । मूलमें देखो पृ० १९८-२०० । आठवीं मूल गाथाकी २०० संख्याक प्रथम भाष्य गाथामें समय-प्रबद्धशेष और भवबद्धशेषके स्वरूपपर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि कर्मस्थिति के भीतर क्रमसे तेदन किये जानेवाले समय प्रबद्धका वेदन करनेके बाद जो प्रदेश पुंज शेष रहकर तदनन्तर समयमें निर्लेपनके अभिमुख होकर दिखाई देता है उसकी समयप्रबंद्ध शेष संज्ञा है । यहाँ 'उदय समय में विद्यमान' ऐसा न कह कर 'निर्लेपनके अभिमुख होकर दिखाई देता है ऐसा कहनेका कारण यह है कि यहाँ एक स्थिति विशेष में स्थित समयप्रबद्ध शेषको ग्रहण न करके अनेक स्थिति विशेषोंमें सान्तर और निरन्तर रूपसे अवस्थित समयप्रबद्धशेषका ग्रहण किया गया है । यह एक समयप्रबद्धशेषकी अपेक्षा कथन जानना चाहिए । नाना समयप्रबद्धोंकी अपेक्षा भी इसी प्रकार जान लेना चाहिए । इसी प्रकार एक भव या नाना भवोंकी अपेक्षा भी जानना चाहिए। अन्तर इतना है कि समयप्रबद्धशेषके विचारमें एक या नाना समयप्रबद्धोंकी अपेक्षा विचार करनेकी मुख्यता रही है किन्तु भवबद्धशेषमें एक या नाना भवोंकी विवक्षा मुख्य रही है। यह स्थितिकी अपेक्षा विचार है। अनुभागकी अपेक्षा अनन्त अनुभागोंको ध्यानमें रख कर समयप्रबद्ध शेष और भवबद्ध शेषका स्वरूप जानना चाहिए। यह समयप्रबद्धशेष कितनी स्थितियोंमें उपलब्ध होता है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि वह कदाचित एक स्थिति विशेषमें उपलब्ध होता है, कदाचित् दो स्थिति विशेषों में उपलब्ध होता है । इस प्रकार क्रमसे तीन आदि स्थिति विशेषोंसे लेकर द्वितीय स्थितिके वर्ष पृथक्त्वप्रमाण सब स्थिति विशेषोंमें विवक्षित समयप्रबद्धशेष उपलब्ध होता है । यह केवल द्वितीय स्थितिसम्बन्धी सभी स्थिति विशेषोंमें ही नहीं उपलब्ध होता है । किन्तु किसी एक संज्वलनकी प्रथम स्थिति सम्बन्धी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितियोंको छोड़ कर शेष सब स्थितियोंमें विवक्षित समयप्रबद्धशेष अवस्थित रहता है। एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितियों के निषेध करनेका कारण यह है कि उदयस्थिति में सो समय प्रबद्धशेषकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि वह अनन्तर समयमें निर्लेप्यमानस्वरूप है। अतः उसका उसी समय निर्लेप्यमान स्वरूप मानने में विरोध आता है। उदयावलि के बाहर प्रथम स्थितिमें भी उसका अवस्थित रहना सम्भव नहीं है, क्योंकि उस स्थिति में रहने वाला प्रदेशपुंज अनन्तर समयमें नियमसे उदयावलिमें प्रवेश करनेवाला है । अतः उस समय उसका अपकर्षण होकर उदयमें निक्षिप्त होना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार उदयावलिके भीतर शेष स्थितियोंमें भी उसके असम्भव होनेका नियम जानना चाहिए। इतना अवश्य है कि उदयस्थितिसे अनन्तर खो द्वितीय स्थिति है उसमें समय प्रबन्ध शेष अवश्य सम्भव है, क्योंकि अनन्तर समयमें वह उदयरूप होकर निर्लेपनके सन्मुख दिखाई देती है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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