SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसे ढोए छट्ठमूल गाहाए पढमभासगाहा $ ४०५. एसा पढमभासगाहा मूलगाहाए पुरिमद्धमस्सियूण अंतरकरणादो उवरिमावत्थाए चदुण्हं संजलणाणमेत्तिया समयपबद्धा अच्छुत्तसरूवा लब्भंति, तेसि च द्विदि-अणुभागेसु अवटूरणमेण सरूवेण होदित्ति एदस्स अत्यविसेसल्स णिण्णयविहणटुमोइण्णा । तं जहा - 'छण्हमावलियाणं' एवं भणिदे अंतरकरणादो उवरिभावत्थाए वट्टमाणस्स खवगस्स छन्हमावलियाणमब्भंतरे जे बद्धा समयबद्धा ते 'नियमसा' णिच्छयेणेव उदये असंसुद्धा भवंति । किं कारणं ? अंतरकरणे कदे तत्तो परं छसु आवलियासु गदासु उदीरणा त्ति नियमदंसणा दो । 'सव्वेसु द्विदिविसेसेस' एवं भणिदे वुण असंछुद्धसमयपबद्धा सव्वेसु ट्ठिदिविसेसेसु सव्वेसु चेवाणुभागभेदेसु चदुसंजल - विसयेसु नियमेणाव चिट्ठति, ण एक्कम्हि वि ठिदिविसेसे अणुभागविसेसे च ते सिमट्ठाण पडसे हो अस्थि त्ति भणिदं होइ । जइ वि एत्थ बंधादो उवरिमसंतट्ठिदीस अणुभागेसु च णिरुद्धसमय १४९ द्वाणमवद्वाण संभवो णत्थि तो वि अप्पणो पाओग्ग-द्विदि- अणुभागवियप्पे सव्वे घेतूण सव्वेस ट्ठिदिअणुभागविसेसेसु नियमा तेसिमवद्वाणं होइ त्ति सुत्ते भणिदं । ण च एवंविहो ६ ४०५. यह प्रथम भाष्यगाथा मूलगाथा के पहले अर्ध भागका आश्रय कर अन्तरकरण से उपरिम अवस्था में चारों संज्वलनोंके इतने समयप्रबद्ध उदोरणारूप क्रियासे रहित प्राप्त होते हैं और उनका स्थिति और अनुभाग में अवस्थान इस रूपसे होता है इस प्रकार इस अर्थ विशेष के निर्णयका विधान करने के लिए अवतीर्ण हुई है । वह जेसे- 'छण्हं आवलियाणं' ऐसा कहनेपर अन्तरकरण के बाद उपरिम अवस्था में विद्यमान क्षपकके छह आवलियोंके भीतर जो बद्ध समयप्रबद्ध हैं वे 'णियमसा' निश्चयसे ही उदय में असंक्षुब्ध ( उदीरणासे रहित) रहते हैं, क्योंकि अन्तरकरण करनेपर उसके बाद छह आवलि काल जानेपर उदीरणा होती है ऐसा नियम देखा जाता है । 'सव्वे द्विदिवि से सेसु' ऐसा कहनेपर तो असंक्षुब्ध समयप्रबद्ध चार संज्वलन सम्बन्धी सब स्थितिविशेषों में और सब अनुभाग के भेदोंमें नियमसे अवस्थित रहते हैं । एक भो स्थितिविशेष में और अनुभागविशेष में उनके अवस्थानका प्रतिषेध नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यद्यपि यहाँपर बन्धसे उपरिस सत्त्वरूप स्थितियोंमें और सत्त्वरूप अनुभागों में विवक्षित समयप्रबद्धों का सर्वत्र अवस्थान सम्भव नहीं है, तो भी अपने बन्ध योग्य सब स्थिति और सब अनुभागके भेदोंको ग्रहण कर सब स्थितिविशेषों में और सब अनुभागविशेषोंमें उनका अवस्थान नियमसे पाया जाता है यह इस सूत्र में कहा गया है । और इस प्रकारका विशेष निर्देश सूत्र में नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकारके विशेषका ज्ञान होता है । विशेषार्थ - अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न करनेके बाद चारों संज्वलनोंका जो नवोन कर्मबन्ध होता है वह सब स्थितियों और सब अनुभागविशेषों में पाया जाकर वह छह आवलि काल नक उदीरणाके अयोग्य रहता है यह इस कथनका तात्पर्य | अब यहाँपर शंकाकारका कहना यह है कि इस जीवके प्रत्येक समयके नवोन बन्धमें जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उससे सत्त्वस्थिति और सत्त्वानुभाग अधिक होता है, इसलिए नवीन बन्धके प्रदेशों का उत्कर्षण सब सत्त्वस्थितियों और सब सत्त्वस्वरूप अनुभागों में न हो सकने के कारण उनका सब स्थितियों और सब अनुभागों में पाया जाना कैसे सम्भव होगा ? समाधान यह है कि चारों संज्वलनों के नवीन बन्धकी उस कालमें जितनी स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उस सीमा तक ही सब स्थिति विशेषोंमें और सब अनुभागों में नवक बन्धका उत्कर्षण होता है, इसलिए उस सोमा
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy