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________________ १४८ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ४०१. अधवा कम्हि त्ति वुत्ते कम्हि उद्देसे समयपबद्धा भवबद्धा च केत्तिया असंछुद्धसत्वा लभंति ति पुच्छाहिसंबंधो कायन्वो। एसो च पुच्छाणिद्देसो अंतरकरणादो पुवुत्तरावत्थाओ उवेक्खदे। ४०२. संपहि एवमेवीए सुत्तगाहाए सूचिदत्यविसये णिण्णयविहाणटुमत्थ चत्तारि भासगाहाओ अस्थि त्ति तासि समुक्कित्तणं विहासणं च जहाकममेव कुगमाणो उत्तरसुत्तपबंधमाढवेइ * एदिस्से चत्तारि भासगाहाओ.। 5 ४०३. सुगमं। * तासि समुक्कित्तणा। ६४०४. सुगमं। (१४२) छण्हमावलियाणं अच्छुत्ता णियमसा समयपबद्धा । सव्वेसु द्विदिविसेसाणुभागेसु च चउण्हं पि ॥१९॥ ६४०१. अथवा 'कम्हि' ऐसा कहनेपर किस स्थानपर भवबद्ध कितने समयप्रबद्ध असंक्षुब्धस्वरूप प्राप्त होते हैं इस प्रकार पृच्छाका सम्बन्ध करना चाहिए। और यह पृच्छाका निर्देश अन्तरकरणसे पूर्व अवस्या और उत्तर अवस्थाको अपेक्षासे प्रबृत्त हुआ है। विशेषार्थ-एक समयमें एक जीवके द्वारा जितने कर्मप्रदेश बन्धको प्राप्त होते हैं उनकी एक समयप्रबद्ध संज्ञा है । तथा भवके भीतर जितने समयप्रबद्ध बन्धको प्राप्त होते हैं उनकी भव बद्ध संज्ञा है। इन दोनोंको लेकर यहाँ जो पृच्छाएं की गयी हैं उनका आशय यह है-(१) अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होनेपर उसके प्रथम समयसे लेकर एक या एक-एक कर जो अनेक समयप्रबद्ध बंधते हैं वे कितनी स्थिति और कितने अनुभागके कितने भेदोंमें पाये जाकर उदयमें दिखाई देते हैं या नहीं दिखाई देते । इस प्रकार भवबद्ध कर्म पुंजके विषय में भी यह पृच्छा कर लेनी चाहिए । 'भवबद्धा' पदको लेकर अन्तरकरणसे पूर्वको अवस्था तथा अन्तरकरणके बादकी अवस्याको लेकर भी उक्त पृच्छा को गयो है यह इस पूरे कथनका तात्पर्य है। ६४०२. अब इस प्रकार इस सूत्रगाथा द्वारा सूचित किये गये अर्थक विषयमें निर्णयका विधान करने के लिए इस विषयमें चार भाष्यगाथाएँ आयो हैं, इसलिए ययाक्रमसे ही उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * इस सातवीं मूल सूत्रगाथाको चार भाष्यगाथाएं हैं। ६४०३. यह सूत्र सुगम है। * अब उनको समुत्कोतना करते हैं। ६४०४. यह सूत्र सुगम है। (१४२) अन्तरकरणके बाद उपरिम अवस्थामें विद्यमान क्षपकके छह आवलियोंके भीतर, बंधे हुए समयप्रबद्ध, असंक्षुब्ध (अनुदीरित) रहते हैं । वे समयप्रबद्ध चारों ही कषायोंसम्बन्धी सभी स्थितिभेदों में और सब अनुभागोंमें पाये जाते हैं ।।१९५॥
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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