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________________ खवगसेढीए सत्तमी मूलगाहा १४७ 'अच्छुत्ता' त्ति वृत्ते जीवेण अच्छिक्का उदथंट्ठिदिमणाणिदा त्ति वृत्तं होइ । अधवा अच्छुत्ता त्ति वृत्तें उदये असंछुद्धा ति अत्थो घेत्तव्वो, उवरि चुण्णिसुत्ते तहाणिद्दे सदंसणा दो । ते वुण असंछुद्धसरूवा समयपबद्धा 'कह द्विदीसु' केत्तिएसु द्विदिभेदेसु वर्द्धति किमेक्कम्हि, आहो दोसु तिसु वा ति एवं विहविसेसणिद्दे सावेक्खो विदिओ पुच्छाणिद्देसो । एदेणेव देसामासयभावेण अणुभागविसयों वि पुच्छाणिद्देसो एत्थाणुगंतव्वो, उवरिमभासगाहाए तस्स वि विहासणोवलंभादो । तदो समयपबद्धाणमच्छुद्धसरुवाणं संखाविसेसो तेसि चेवावद्वाणपाओग्गट्ठिदि-अणुभागवियप्पा च गाहापुण्वद्धे पुच्छिदा ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । $ ४००. संपहि गाहापच्छद्धमस्सियूण भवबद्धविसयो पुच्छानुगमो कीरदे । तं जहा - 'भवबद्धा अच्छुत्ता' एवं भणिदे एक्कम्मि भवग्गहणे जेत्तिओ कम्मपोग्गलो संचिदो तस्स भवबद्धसण्णा । सो वुण भवभेदेण एगभवविसयसमयपबद्धभेदेण च बहुत्तमावण्णो त्ति बहुवयणेण णिद्दिट्ठो । तदो एवमेत्थ सुत्तत्थ संबंधो कायव्वो-केत्तिया भवबद्धा एदस्स खवगस्स उदयट्ठिदीए असंछुद्धसरूवा भवंति किमेक्कभवसंबंधिणी आहो दो तिष्णि आदि संखेज्जासंखेज्जभवग्गहणसंबंधिणो, कि वा सव्वे वि भवबद्धा उदयपज्जाएण संछुत्ता चेव । ण एक्को वि भवबद्धो तदच्छुत्तसरूवो संभवदि, छुत्ताणमच्छुत्ताणं वा तेस केत्तिएसु द्विदिविसेसेसु केत्तिएसु वा अणुभागभेदेसु अवद्वाण संभवोत्ति एत्थ वि अणुभागविसयाए पुच्छाए पुग्वं व अंतब्भावो ददृव्वो । असंख्यात समयप्रबद्ध अछूते रहते हैं। इस प्रकार यह प्रथम पृच्छानिर्देश है। इस मूलगाथा सूत्रमें अच्छुत्ता' ऐसा कहनेपर जीवके द्वारा अस्पृष्ट अर्थात् उदयस्थितिको नहीं प्राप्त कराये गये रहते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा ' अच्छुत्ता' ऐसा कहनेपर उदयमें असंक्षुब्ध रहते हैं यह अर्थं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आगे चूर्णिसूत्र में उस प्रकारका निर्देश देखा जाता है । किन्तु वे असं स्वरूप समयप्रबद्ध 'कहि द्विदीसु' स्थितिके कितने भेदोंमें पाये जाते हैं ? क्या एक स्थिति में, दो स्थितियों में या तीन स्थितियों में पाये जाते हैं इस प्रकार विशेष निर्देशकी अपेक्षा रखनेवाला यह दूसरा पृच्छानिर्देश है । इस प्रकार इस कथनद्वारा देशामर्षकरूपसे अनुभागविषयक भी पृच्छा निर्देश यहाँपर करना चाहिए, क्योंकि उपरिम माध्यगाथा में उसकी भी विभाषा उपलब्ध होती है । इस प्रकार असंक्षुब्धस्वरूप समयप्रबद्धोंकी संख्याविशेषकी और उन्हीं के अवस्थानप्रायोग्य स्थिति और अनुभागके भेदोंकी इस गाथासूत्र के पूर्वार्ध में पृच्छा की गयी है यह यहां पर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । § ४००. अब उक्त गाथासूत्र के उत्तरार्धका अवलम्बन लेकर भवबद्ध विषयक पृच्छाका अनुगम करते हैं । वह जैसे - ' भवबद्धा अच्छुत्ता' ऐसा कहनेपर एक भवग्रहण में जितना कर्मपुद्गल संचित किया गया उसकी भवबद्ध संज्ञा है । परन्तु वह भवके भेदसे और एक भवविषयक समयप्रबद्धों के भेदसे बहुतपनेको प्राप्त हो जाता है, इसलिए बहुवचनका निर्देश किया है। इसलिए यहाँपर सूत्रका अर्थके साथ इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए कि कितने भवबद्ध समयप्रबद्ध इस क्षपकके उदयस्थिति में असंक्षुब्धस्वरूप होते हैं ? क्या एक भवसम्बन्धी या दो-तीन आदि संख्यात और असंख्यात भवग्रहणसम्बन्धी समयप्रबद्ध उदयरूपसे असंक्षुब्त्र होते हैं । अथवा क्या सभी भवबद्ध समयप्रबद्ध उदयरूपमें संक्षुब्ध होते हैं या एक भी भवबद्ध समयप्रबद्ध उदयरूपसे मक्षुब्धस्वरूप नहीं पाया जाता। इस प्रकार क्षुब्धस्वरूप और अक्षुब्धस्वरूप उन समयप्रबद्धों का कितने स्थिति के भेदोंमें अथवा कितने अनुभाग विशेषोंमें अवस्थान सम्भव है। इस प्रकार यहाँपर भी अनुभागविषयक पृच्छाका पहलेके समान अन्तर्भाव जान लेना चाहिए ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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