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________________ १५० षयषवलासहिदे कसायपाहुरे विसेसणिद्देसो सुत्ते णत्थि ति आसंकणिज्जं, वक्खाणादो तहाविहंविसेसपडिवत्तीदो। ६४०६. अघवा चउण्हं पि संजलणाणं सम्वेसु दिदिविसेसेस सम्वास च संगहकिट्टीस समयाविरोहेण तं पदेसग्गं छण्हमावलियाणमन्भंतरे जाव ण संकंतं ताव उदीरणापाओग्गं ण होदि त्ति जाणावणटुं गाहापच्छरो भणियो। ६४०७. संपहि एक्स्सेव गाहासत्तत्थस्स फुडोकरणटुमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ* विहासा। 5४०८. सुगमं। * जत्तो पाए अंतरं कदं तत्तो पाए समयपबद्धो छसु आवलियासु गदासु उदीरिज्जदि । ६४०९. जदो पहुडि अंतरकरणं समाणिदं तदो पहुडि जो बद्धो समयपबद्धो सो णियमा छसु आवलियासु गदास उदोरिज्जवि, णो हेट्ठा ति वुत्तं होइ। एवमेवम्हि णियमे संजावे छण्हमालियाणं समयपबद्धा संछुद्धसरूवा होदूण एदम्हि विसए लन्भंति ति जाणावण?. मिवमाह तक ही नवक बन्धका उत्कर्षण द्वारा सद्भाव पाया जाता है ऐसा अर्थविशेष यहां व्याख्यानसे समझ लेना चाहिए जो उत्कर्षणके नियमको ध्यानमें रखकर व्याख्यान द्वारा स्पष्ट किया गया है। ६४०६. अथवा चारों ही संज्वलनोंकी सब स्थिति विशेषोंमें और सब संग्रह कृष्टियों में समयके अविरोधपूर्वक वह प्रदेशपुंज छह आलियोंके भीतर जब तक संक्रान्त नहीं होता तब तक व: उदीरणाके प्रायोग्य नहीं होता इस बातका ज्ञान कराने के लिए गाथाका उत्तरार्ध कहा है। विशेषार्थ-आनुपूर्वी संक्रमके कारण भी नवकबन्धकी छह आवलिके बाद उदीरणा होने रूप व्यवस्था यहां घटित कर लेनी चाहिए। वैसे परमार्थसे देखा जाय तो अन्तरकरण क्रियाके सम्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर उदीरणा छह आवलिके बाद ही होती है ऐसा नियम है। ६४०७. अब इसी गाथाके सूत्रका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६४०८. यह सूत्र सुगम है। * जहां जाकर अन्तरकरण क्रियाको सम्पन्न किया है वहाँसे लेकर बद्ध समयप्रबद्ध छह मावलि प्रमाण काल जानेपर उदोरित होता है। ६४०९. जहां जाकर अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न हुई है वहाँसे लेकर जो समयप्रबद्ध बंधता है वह नियमसे छह आवलि प्रमाण काल जानेपर उदीरित होता है, इससे पूर्व नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस नियमके हो जानेपर इस कारण छह आवलि सम्बन्धी समयप्रबद्ध संक्षुब्धस्वरूप होकर इस स्थानपर प्राप्त होते हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेके सूत्रको कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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