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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे ६ ३५०. एसा पढमभासगाहा पज्जत्तापज्जत्तजीवसमासेसु वेदगसम्मत्तमग्गणासु च पयवत्थणिण्णयकरणट्ठ मोइण्णा । तं जहा - 'पज्णत्तापज्जत्ते' एवं भणिदे पज्जतेंण अपज्जसैंण च पुवबद्धाणि कम्माणि नियमा अत्थि त्ति सुत्तत्थसंबंधो; कम्मट्ठदिम अंतरे पज्जत्तापज्जत्तपज्जाया दोन्हमवस्संभावनियमादो । पुव्वबद्धाणमेत्याभयणिज्जत्तमवहारेयश्वं । 'मिच्छत्त णव सये च सम्मत्ते' एवं भणिदे मिच्छत्तपज्जाए णवुंसयवेदपज्जाये सम्मत्तपज्जाये च वट्टमाणेण जीवेण godaणि कम्माण अभज्जाणि ति सुत्तत्थसंबंधो कायव्वो । १३० ६ ३५१. तत्थ मिच्छतपज्जाओ णवुंसयवेदपज्जाओ च कम्मट्ठिदिअन्भंतरे अवस्संभाविओ, तप्परिहारेण कम्मट्ठिदिसमाणणोवायाभावादो । सम्मत्तपज्जाओ वि एत्थवस्संभाविओ चेव, तेण विणा खवगसेढिसमारोहणासंभवादो । तदो एदेसु पज्जाए वट्टमाणेण पुवबद्धाणि कम्माणि एक्स्स खवगस्स णियमा अस्थि त्ति सिद्धमभयणिज्जत्तं । ६३५२. 'त्थी पुरिसे विस्सए भज्जा' एवं भणिदे इत्थी पुरिसवेदसम्मामिच्छत्तपज्जा सु माण पुवबद्धाणि भयणिज्जाणि त्ति घेत्तव्यं, कम्म द्विदिअब्भंतरे एदेसिमवस्संभावणियमाणुव $ ३५०. यह प्रथम भाष्यगाथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवसमासोंमें तथा वेद और सम्यक्त्वमार्गणा में प्रकृत अर्थका निर्णय करनेके लिए अवतीर्ण हुई है । वह जैसे - 'पज्जत्तापज्जत्ते' ऐसा कहने पर पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाके साथ पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं ऐसा इस सूत्र का अर्थके साथ सम्बन्ध है, क्योंकि कर्मस्थितिके भीतर पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों पर्यायोंके अवश्य ही होनेका नियम है। इसलिए पूर्वबद्ध कर्म यहाँपर अभजनीय हैं ऐसा निश्चय करना चाहिए । 'मिच्छत्त णवुंसये च सम्मत्ते' ऐसा कहनेपर मिथ्यात्व पर्याय में, नपुंसकवेद पर्याय में और सम्यक्त्व पर्यायमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। ऐसा इस सूत्र ओर अर्थका परस्पर सम्बन्ध करना चाहिये । § ३५१. उनमें से मिथ्यात्वपर्याय और नपुंसक वेदपर्याय कर्मस्थितिके भीतर अवश्यंभावी हैं, क्योंकि इनकी प्राप्तिके बिना कर्मस्थितिकी समाप्तिका अन्य कोई उपाय नहीं है। सम्यक्त्वपर्याय भी यहाँपर अवश्यंभावी ही है, क्योंकि उसके बिना क्षपकश्रेणिपर आरोहण करना असम्भव है । इसलिए इन पर्यायोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वमें बाँधे गये कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं । इस प्रकार उक्त मार्गणाओं में पूर्वबद्ध कर्म क्षपक के अभजनीय हैं यह सिद्ध हो गया । विशेषार्थ - कर्मस्थिति कालके भीतर यह जीव अनेक बार पर्याप्त भी हुआ है और अपर्याप्त भी हम है । साथ ही सपर्यायको कार्यस्थिति साधिक दो हजार सागरोपम है, मतः उसका कर्मस्थितिके भीतर नपुंसकवेद और मिथ्यात्वके साथ एकेन्द्रियपर्याय में रहना भी अवश्यंभावी है । इस प्रकार तो पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था के साथ नपुंसकवेद मार्गणा और मिथ्यात्वगुणस्थान में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। साथ ही यह भी नियम है कि सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके बाद ही इस जीवका संयमपूर्वक क्षपकश्रेणिवर आरोहण करना बन सकता है, इसलिए सम्यक्त्वमार्गणा में पूर्ववद्ध कर्म इस जीवके नियमसे पाये जाते हैं । $ ३५२. 'त्थी पुरिसे मिस्सए भज्जा' ऐसा कहनेपर खोवेद, पुरुषबेद और सम्माग्मिथ्यात्व पर्याय में इस जीवके द्वारा बाँधे गये कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कर्मस्थिति के भीतर इन मार्गणाओंके अवश्य होनेका नियम नहीं पाया जाता । सासादन
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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