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________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए पढमभासगाहा १३१ लभादो। सासणसम्माइट्ठिणा च बद्धाणि भयणिज्जाणि त्ति एसो वि अत्यो एत्य वक्खाणेयव्यो, मिस्सणिद्दे सस्सेदस्स देसामासयभावेण पवुत्तिअन्भुवगमादो। 5 ३५३. संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडोकरण?मुवरिमं विहासागंथमाढवेइ* विहासा। 5 ३५४. सुगम। * पज्जत्तेण अपज्जत्तेण मिच्छाइटिणा सम्माइद्विणा णqसयवेदेण च एवंभावभूदेण बद्धाणि णियमा अस्थि । * इत्थोए पुरिसेण सम्मामिच्छाइट्ठिणा च एवंभावभूदेण बद्धाणि भज्जाणि। ६३५५. एवाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । णवरि 'एवंभावभूदेणेत्ति' भणिवे एवंविहभावपरिणदेण जीवेण बद्धाणि कम्माणि एदस्स खवयस्स भयणिज्जाभयणिज्जसहवेण अस्थि ति घेत्तव्वं । एवं पढमभासगाहाए विहासा समत्ता। सम्यग्दृष्टिके द्वारा बद्ध कर्म भी इस क्षपकके भजनीय हैं इस अर्थका भी यहां व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि यहाँपर इस मिश्रपदके निर्देशकी देशामर्षकरूपसे प्रवृत्ति स्वीकार की गयी है। विशेषार्थ-कर्मस्थितिके भीतर कोई जीव एकेन्द्रिय पर्यायसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी हुए बिना सीधा नपुंसकवेदके साथ मनुष्य और सम्यग्दृष्टि होकर तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि न होकर संयमपूर्वक क्षपकणिपर बारोहण करे यह सम्भव है। यही कारण है कि उक्त मार्गणाओंमें बांधे गये कर्म इस क्षपकके अभजनीय कहे हैं, क्योंकि जो कर्मस्थितिके भीतर उक्त मार्गणाओं में से विवक्षित किसी मार्गणाको प्राप्त कर क्रमशः क्षपकोणिपर आरोहण करता है उसके तो पूर्वोक्त विवक्षित मार्गणामें बांधे गये कर्म इस झपकके नियमसे पाये जाते हैं और जो कर्मस्थितिके भीतर शेष मार्गणाओं में से किसी भी मार्गणाको प्राप्त ए बिना क्षपश्रेणिपर आरोहण करता है उस क्षपकके उक्त मार्गणामें बांधा गया कर्म इस क्षपकके नियमसे नहीं पाया जाता है । इसीलिए शेष मार्गणाओंकी अपेक्षा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनोय कहे हैं। ६३५३. अब इसी गाथासूत्रका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। 5 ३५४. यह सूत्र सुगम है। * पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थासे युक्त मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और नपुंसकवेद इस प्रकार इन भावोंसे परिणत जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं इसलिए अभजनीय हैं। * स्त्रीवेद, पुरुषवेव और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इस प्रकार इन भावोंसे परिणत जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीव हैं। ६३५५. ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं। इतनी विशेषता है कि 'एवंभावभूदेण' ऐसा कहनेपर इस प्रकारके भावोंसे परिणत जीवके द्वारा बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे पाये जाते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाको विभाषा समाप्त हुई।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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